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कालिदास का रघुवंश।

पूर्वक अपना काम करती है उसी तरह कवि का वह गूढ़ उद्देश भी पाठकों के हृदय पर असर करता है; पर उनको उसके अस्तित्व की कुछ भी ख़बर नहीं होती। इस प्रकार का गूढ़ उद्देश पाठकों के अन्तःकरण में चिरस्थायी संस्कार उत्पन्न किये बिना नहीं रहता। कवि का वह प्रच्छन्न उद्देश है—पाठकों के हृदय का उत्कर्ष साधन और शुद्धि-विधान, तथा जगत् को शिक्षा-प्रदान। कवि-जन पहले तो सौन्दर्य्य की पराकाष्ठा दिखलाते हैं। फिर, उसी प्रत्यक्ष-सौन्दर्य्य-सृष्टि के द्वारा परोक्षभाव से पाठकों के हृदय को भी सौन्दर्य्य-पूर्ण कर देते हैं। सुन्दर फूल को देख कर नेत्रों को अवश्य तृप्ति होती है; पर यदि ऐसे फूल में सौरभ भी हो तो साथही मन भी तृप्त हो जाता है। नेत्रों की तृप्ति क्षणस्थायिनी होती है; परन्तु मन की सृप्ति चिरस्थायिनी। इसी से कवि-जन लोकशिक्षोपयोगी आदर्शों को सौन्दर्य्यरूपी हृदयरञ्जक आवेष्टन से आवृत करके संसार में शिक्षा का प्रचार करते हैं। धीरता और सत्यप्रियता सर्वश्रेष्ठ गुण हैं। अतएव सबको धीर और सत्यप्रिय होना चाहिए। भीष्म और युधिष्ठिर की सृष्टि करके महाभारत में कवि ने बड़ी ही ख़ूबी से इन गुणों की शिक्षा दी है। सैकड़ों वाग्मी हज़ारों वर्ष तक वक्तृता देकर भी जो काम इतनी अच्छी तरह नहीं कर सकते, जो काम राजशासन द्वारा भी सुन्दरतापूर्वक नहीं हो सकता, वही काम कवि अपने सृष्टि-कौशल द्वारा सहजही में कर सकता है। आत्म-त्याग अच्छी चीज़ है, स्वार्थपरता बुरी। इस तत्त्व को धर्म्मोपदेष्टा सौ वर्ष तक प्रयत्न करके शायद लोगों के हृदय पर उतनी सुन्दरता से खचित न कर सकेंगे जितनी सुन्दरता से कि कवि ने राम के द्वारा सीता का निर्वासन कराकर खचित किया है। इसी से यह कहना पड़ता है कि कवि संसार के सर्व-प्रधान शिक्षक और सर्व-प्रधान उपकारक हैं।

काव्य का स्मृष्टि-सौन्दर्य्य किसी निर्दिष्ट विषय से ही सम्बन्ध नहीं रखता। केवल रूप, गुण या किसी अवस्था-विशेष के वर्णन में ही सौन्दर्य परिस्फुट नहीं होता। देश, काल, पात्र, रूप, गुण, अवस्था, कार्य आदि की समष्टि के द्वारा यदि किसी सुन्दर वस्तु की सृष्टि की जाय तो उस सृष्ट वस्तु के सौन्दर्य्य को ही यथार्थ सौन्दर्य्य कह सकते हैं। वही कविसृष्टि का परमोत्कर्ष है। अन्यथा, यदि और बातों की उपेक्षा करके नायिका के चिकुर-वर्णन से ही सर्ग का अधिकांश भर दिया जाय तो उसमें सौन्दर्य आ कैसे सकेगा? उससे तो उलटा विरक्ति उत्पन्न होगी।

सृष्टि-नैपुण्यही कवि का प्रथम और प्रधान गुण है। उस सृष्टि-नैपुण्य के किसी अंश में त्रुटि आजाने से काव्य की जैसे अङ्गहानि होती है वैसे