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कालिदास के ग्रन्थ।

जिस मधुर आनन्द की उत्पत्ति होती है, अभिज्ञान शाकुन्तल-रूपी स्वच्छ दर्पण में उसी का प्रतिबिम्ब देखने को मिलता है। शकुन्तला महाकवि की चरम सृष्टि है—वाणी के वर-पुत्र का अक्षय आलेख्य है!

बँगला के सर्वश्रेष्ठ कवि कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने शकुन्तला-रहस्य नामक एक प्रबन्ध में अभिज्ञान शाकुन्तल की प्रशंसा में जो कुछ लिखा है वह भी सुनने लायक है। अतएव उसके भी कुछ अंश का अनुवाद नीचे दिया जाता है:—

इस नाटक में दो संयोगात्मक घटनाये हैं। नाटक के आदि में दुष्यन्त और शकुन्तला, पारस्परिक सौन्दर्य से मोहित होकर, आपस में मिलते हैं। यह मिलाप विषय-वासना-जन्य है। यह इस नाटक की पहली संयोगात्मक घटना है। दूसरी घटना नाटक के अन्त में है। वह उस समय की है जब विषयवासना से रहित होकर सच्चे ईश्वरीय प्रेम की प्रेरणा से मरीचि के आश्रम में दुष्यन्त और शकुन्तला दोनों मिलते हैं। इस समूचे नाटक का उद्देश पहली संयोगात्मक घटना को दूसरी में परिणत कर देना है। अथवा यों कहिए कि प्रेम को सांसारिक सान्दर्य्य के गढ़े से निकाल कर धार्म्मिक सान्दर्य्य के अविनश्वर स्वर्ग में स्थापित करना ही कालिदास का मुख्य उद्देश है।

इस उद्देश की पूर्त्ति, अर्थात् पृथ्वी और स्वर्ग का संयोग, कालिदास ने बहुत ही अच्छी तरह से किया है। कालिदास की पृथ्वी ऐसी सुगमता से स्वर्ग में जा मिलती है कि पाठकों को दोनों की सीमा का मेल मालूम ही नहीं पड़ता। पहले अङ्क में कवि ने विषय-वासना-विवश शकुन्तला के अधःपतन को छिपाने की चेष्टा नहीं की। युवावस्था के कारण नई नई बातें जो होती हैं उन सब का कवि ने चित्र सा खींच दिया है। यह शकुन्तला के भोलेपन का प्रमाण है। दुष्यन्त को देखने से उसके हृदय में प्रेम सम्बन्धी जो जो भाव आविर्भूत हुए उनसे सामना करने के लिए वह तैयार न थी। वह यह न जानती थी कि ऐसे अवसर पर अपने चित्त की वृत्तियों को मैं कैसे रोकूँ, और अपने हृद्गत भावों को में कैसे छिपाऊँ। वह प्रेम के प्रपञ्च से बिलकुल ही अपरिचित थी। ऐसे मौक़े के लिए जो शस्त्रास्त्र दरकार होते हैं वे उसके पास न थे। इससे उसने न तो अपने हृदय के भावों पर ही अविश्वास किया और न अपने प्रेमी दुष्यन्त के व्यवहार ही पर। जैसे उसके आश्रम की मृगियाँ भय से एकदम अपरिचित थीं वैसे ही वह आश्रमवासिनी कन्या भी इस तरह की आपत्तियों से बिलकुल अनजान थी।