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उन्नीसवाँ सर्ग।

देकर, अँधेरी रात में, निकल ही जाता। जब इस बात की ख़बर दूतियों द्वारा रानियों को मिलती तब वे भी उसके पीछे दौड़ पड़तीं और रास्ते ही से यह कह कर उसे पकड़ लातीं कि तू इस तरह हम लोगों को धोखा देकर न जाने पावेगा।

अग्निवर्ण के लिए दिन तो रात हो गई और रात दिन हो गया। दिन भर तो वह सोता और रात भर जागता। अतएव वह चन्द्र विकासी कुमुदों से परिपूर्ण सरोवर की उपमा को पहुँच गया। क्योंकि वे भी दिन को बन्द रहते और रात को खिलते हैं।

जिन गानेवालियों के ओठों और जंघाओं पर व्रण थे उन्हीं से वह कहता कि ओठों पर रखकर बाँसुरी और जङ्घाओं पर रख कर वीणा बजाओ। जब वे उसकी आज्ञा का पालन करतीं और उसकी इस धूर्त्तता को लक्ष्य करके वक्रदृष्टि द्वारा उसे रिझातीं क्या—उलाहना देतीं तब वह मन ही मन बहुत प्रसन्न होता।

नाचने-गाने में तो वह प्रवीण था ही। एकान्त में वह कायिक, वाचिक और मानसिक तीनों प्रकार का अभिनय नर्त्तकियों को सिखाता। फिर मित्रों के सामने वह उनसे वही अभिनय कराता। अभिनय के समय वह बड़े बड़े नाट्याचार्य्यों को भी बुलाता और उन्हें अभिनय दिखाता। यह बात वह इसलिए करता जिसमें निपुण नाट्यार्चाय्य भी उस अभिनय का देख कर अवाक् हो जायँ और उन्हें उन नर्त्तकियों से हार माननी पड़े। और उनसे हारना मानों उनके गुरु स्वयं अग्निवर्ण से हारना था।

वर्षा ऋतु आने पर वह उन कृत्रिम पर्वतों पर चला गया जहाँ मतवाले मोर कूक रहे थे। वहाँ पर कुटज और अर्जुन वृक्ष के फूलों की माला धारण करके और कदम्ब के फूलों के पराग का उबटन लगा कर उसने मनमाना विहार किया। उस समय उसने अपनी मानवती महिलाओं को मनाने की ज़रूरन न समझी। उसने कहा, मनाने का श्रम मैं व्यर्थ ही क्यों उठाऊँ। बादलों की गर्जना सुनते ही उनका मान आपही आप छूट जायगा।

कार्तिक का महीना लगने—शरद ऋतु आने—पर उसने चँदोवा तने हुए महलों में निवास किया और मेघमुक्त उज्ज्वल चाँदनी में हास-विलास करके अपनी आत्मा को कृतार्थ माना। सरयू उसके महलों के पास ही थी। उसके वालुकामय नट पर हंस बैठे हुए थे। अतएव, उसका हंसरूपी करधनीवाला तट नितम्ब के सदृश जान पड़ता था और ऐसा मालूम होता था कि सरयू अग्निवर्ण की प्रियतमाओं के विलास की होड़ कर रही