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रघुवंश।

में आ जाती। तब अग्निवर्ण हाथ जोड़ कर उन्हें मनाने की चेष्टा करता। परन्तु उसकी इस चेष्टा से उनका दुःख कम होने के बदले दूना हो जाता। जब कभी रात को सोते समय, स्वप्न में, अग्निवर्ण के मुख से उसकी किसी प्रेयसी का नाम निकल जाता तब तो उसकी रानियों के क्रोध का ठिकाना ही न रहता। वे उससे बोलतीं तो एक शब्द भी नहीं; पर रो रोकर और अपने हाथ के कङ्कण इत्यादि तोड़ तोड़ कर उसका बेतरह तिरस्कार करतीं। यह सब होने पर भी वह अपनी कुचाल न छोड़ता। वह गुप्त लता-कुञ्जों में अपने लिए फूलों की सेजैं बिछवाता और वहीं मनमाने भोग-विलास किया करता।

कभी कभी भूल से वह किसी रानी को अपनी किसी प्रेयसी के नाम से पुकार देता। इस पर उस रानी को मर्मभेदी वेदना होती। वह, उस समय, राजा को बड़े ही हृदयदाही व्यङ्ग्य वचन सुनाती। वह कहती:—"जिसका नाम मुझे मिला है यदि उसी का जैसा सौभाग्य भी मुझे मिलता तो क्या ही अच्छा होता"!

प्रातःकाल अग्निवर्ण की शय्या का दृश्य देखते ही बन आता। कहीं उस पर कुमकुम पड़ा हुआ देख पड़ता, कहीं टूटी हुई माला पड़ी देख पड़ती, कहीं मेखला के दाने पड़े देख पड़ते, कहीं महावर के चिह्न बने हुए दिखाई देते।

कभी, कभी मौज में आकर, वह किसी प्रेयसी के पैरों में आप ही महावर लगाने बैठ जाता। परन्तु मन उसका उसकी रूपराशि और अङ्ग-शोभा देखने में इतना लग जाता कि महावर अच्छी तरह उससे न लगाते बनता। जिस काम में मन नहीं लगता वह क्या कभी अच्छा बन सकता है?

अग्निवर्ण ने कुतूहल-प्रियता की हद कर दी। जिस समय उसकी कोई रानी, एकान्त में, सामने दर्पण रख कर, अपना मुँह देखती उस समय वह चुपचाप उसके पीछे जाकर बैठ जाता और मुसकराने लगता। जब उसका प्रतिबिम्ब दर्पण में दिखाई देता तब बेचारी रानी, लाज के मारे, अपना सिर नीचा करके रह जाती।

कभी कभी अग्निवर्ण यह बहाना करके बाहर जाने लगता कि इस समय मुझे अपने एक मित्र का कुछ काम करना है। उसके लिए मेरा जाना अत्यावश्यक है। परन्तु उसकी रानियाँ उसकी एक न सुनतीं। वे कहती:—"हे शठ! हम तेरे छल-कपट को ख़ूब जानती हैं। इस तरह अब हम तुझे नहीं भाग जाने देंगी।" यह कह कर वे उसके केश पकड़ कर बलवत् रोक रखतीं। तिस पर भी वह कभी कभी रानियों को धोखा