तक वह उस अक्षरमालिका को पूरे तौर पर ग्रहण करे तब तक वह विद्यावृद्ध पुरुषों की सङ्गति से दण्डनीति के सारे फलों से युक्त हो गया। लिखना पढ़ना अच्छी तरह जानने के पहलेही वह दाण्डनीति का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके न्यायासन पर बैठने योग्य हो गया।
राज-लक्ष्मी यह चाहती थी कि वह सुदर्शन के वक्षःस्थल में निवास करे। परन्तु बालक होने के कारण सुदर्शन की छाती कम चौड़ी थी। अतएव वह लक्ष्मी के निवास के लिए काफी न थी। यह देख कर लक्ष्मी उसके युवा होने की राह बड़े चाव से देखने लगी। परन्तु उसकी उत्सुकता इतनी बढ़ी हुई थी कि तब, तक ठहरना उसके लिए असह्य हो गया। अतएव सुदर्शन के छोटेपन के कारण लज्जित सी होती हुई उसने, सुदर्शन के छत्र की छाया के बहाने, उसे गले से लगाया।
वयस कम होने के कारण न सुदर्शन की भुजायें रथ के जुवे के समान लम्बी और पुष्ट थीं, न धनुष की प्रत्यञ्चा की रगड़ के चिह्नही उन पर थे, और न खड्गकी मूठही उन्होंने तब तक स्पर्श की थी—तथापि वे इतनी प्रभावशालिनी थीं कि उन्होंने बड़ी ही योग्यता से पृथ्वी की रक्षा की; इस काम को उन्होंने बहुतही अच्छी तरह किया। बात यह है कि तेजस्वियों की वयस नहीं देखी जाती।
जैसे जैसे दिन बीतने लगे वैसेही वैसे सुदर्शन के शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग भी बढ़ने और पुष्ट होने लगे। यही नहीं, किन्तु, उसके वंश के जो स्वाभाविक गुण थे वे भी उसमें वृद्धि पाने लगे। थे वे पहले भी, परन्तु सूक्ष्मरूप में थे। वयस की वृद्धि के साथ बढ़ते बढ़ते वे बहुत अधिक हो गये। ये वे गुण थे जिन्हें सब लोग बहुत पसन्द करते थे और जिन्हें देख कर प्रजा प्रसन्न होती थी।
सुदर्शन के अध्यापकों को उसे पढ़ाने में कुछ भी परिश्रम न पड़ा। जो कुछ उसे पढ़ाया जाता उसे वह इतना शीघ्र याद कर लेता जैसे वह पूर्वजन्म का उसका पढ़ा हुआ हो। बस उसका वह स्मरण सा करके हृदयस्थ कर लेता। इस प्रकार, बहुतही थोड़े दिनों में, उसने त्रिवर्ग—अर्थात् धर्म्म, अर्थ और काम—की प्राप्ति का मूल कारण त्रयी, वार्ता और दण्डनीति नामक तीनों विद्या प्राप्त कर ली। यही नहीं, किन्तु अपने बापदादे के प्रजावर्ग और मन्त्रिमण्डल पर भी उसने अपनी सत्ता जमा ली। साधारण शास्त्र-ज्ञान की प्राप्ति के साथ साथ उसने धनुर्विद्या का भी अच्छा अभ्यास कर लिया। जिस समय वह अपने शरीर के अगले भाग—अर्थात् छाती—को तान कर, केशकलाप का जूड़ा सिर पर ऊँचा बाँध
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