उसके अनन्तर ध्रुव के समान कीर्त्तिशाली उसके ध्रुवसन्धि नामक पुत्र ने अयोध्या का राज्य पाया। वह बड़ाही सत्यप्रतिज्ञ राजा हुआ। उसके सामने उसके सभी शत्रुओं को सिर झुकाना पड़ा। उसने इस योग्यता से राज्य किया कि उसके वैरियों की की हुई सन्धियों में कभी किसी को दोष निकालने का मौक़ा न मिला। जो सन्धि एक दफ़े हुई वह वैसीही अटल बनी रही। कभी उसके संशोधन की आवश्यकता न पड़ी।
उसके द्वितीया के चन्द्रमा के समान दर्शनीय सुदर्शन नाम का सुत हुआ। मृगों के समान बड़ी बड़ी आँखों वाले ध्रुवसन्धि को आखेट से बड़ा प्रेम था। फल यह हुआ कि नरों में सिंह के समान उस बलवान् राजा ने शिकार खेलते समय सिंह से मृत्यु पाई। उस समय उसका पुत्र सुदर्शन बहुत छोटा था।
ध्रुवसन्धि के स्वर्गगामी हाने पर अयोध्या की प्रजा अनाथ हो गई। उसकी दीन दशा को देख कर ध्रुवसन्धि के मन्त्रियों ने, एकमत होकर, उसके कुल के एक मात्र तन्तु सुदर्शन को विधिपूर्वक अयोध्या का राजा बना दिया। ध्रुवसन्धि के वही एक पुत्र था। अतएव उसे राजा बना देने के सिवा अयोध्या की प्रजा को सनाथ करने का और कोई उपाय ही न था। उस बाल-राजा को पाने पर रघुकुल की दशा नवीन चन्द्रमा वाले आकाश से, अथवा अकेले सिंह-शावक वाले वन से, अथवा एकमात्र कमल-कुड्मल वाले सरोवर से उपमा देने याग्य हो गई।
जिस समय शिशु सदर्शन ने अपने सिर पर किरीट और मुकुट धारण किया उस समय अयोध्या की प्रजा को बहुत सन्तोष हुआ। सब लोगों ने कहा:—"कुछ हर्ज नहीं जो हमारा राजा अभी बालक है। किसी दिन तो वह अवश्यही तरुण होगा। और, तरुण होने पर वह अवश्यही पिता की बराबरी करेगा। क्योंकि, हाथी के बच्चे के समान छोटा भी बादल का टुकड़ा, सामने की पवन पाकर, क्या सभी दिशाओं में नहीं फैल जाता"?
सुदर्शन की उम्र, उस समय, यद्यपि केवल छः ही वर्ष की थी तथापि वह हाथी पर सवार होकर नगर में कभी कभी घूमने के लिए राजमार्ग से निकलने लगा। जिस समय वह निकलता, राजसी पोशाक में बड़ी सज धज से निकलता और महावत उसे थाँभे रहता। उसे जाते देख अयोध्यावासी, उसके बालवयस का कुछ ख़याल न करके, उसका उतनाहीं गौरव करते जितना कि वे उसके पिता का किया करते थे। जिस समय सुदर्शन अपने पिता के सिंहासन पर आसीन होता उस समय, शरीर छोटा होने के कारण, सिंहासन की सारी जगह उससे व्याप्त