राजा शिल का पुत्र उन्नाभ नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसकी नाभि बड़ी गहरी थी। वह कमल-नाभ (विष्णु) के समान प्रभावशाली था। अपने प्रताप और पौरुष से वह सारे राजाओं के मण्डल की नाभि बन बैठा। सबको अपने अधीन करके आप चक्रवर्ती राजा हो गया।
उसके अनन्तर वज्रगाभ नामक उसका पुत्र राजा हुआ। वज्रधारी इन्द्र के समान प्रभाव वाला वह राजा जिस समय समर में वज्र के सदृश घोर घोष करता उस समय चारों तरफ़ हाहाकार मच जाता। वह वज्र अर्थात् हीरेरूपी आभूषण धारण करने वाली सारी पृथ्वी का पति हो गया और चिरकाल तक उसका उपयोग करके, अन्त समय आने पर, अपने पुण्यों से प्राप्त हुए स्वर्ग को सिधारा।
वज्रणाभ की मृत्यु के अनन्तर, समुद्र-पर्य्यन्त फैली हुई पृथ्वी ने, खानियों से नाना प्रकार के रत्नरूपी उपहार लेकर, शङ्खण नामक उसके पुत्र की शरण ली। इस राजा ने भी अपने शत्रुओं को जड़ से उखाड़ कर और बहुत दिन तक राज्य करके परलोक का रास्ता लिया।
उसके मरने पर सूर्य्य के समान तेजस्वी आर अश्विनी कुमार के समान सुन्दर उसके पुत्र का पिता की राजपदवी प्राप्त हुई। दिग्विजय करते करते वह महासागर के तट तक चला गया। वहाँ उसके सैनिक और अश्व (घोड़े) कई दिन तक ठहरे रहे। इसीसे इतिहासकार उसे व्युपिताश्व नाम से पुकारते हैं। पृथ्वी के उस ईश्वर ने विश्वेश्वर (महादेव) की आराधना करके विश्वसह नामक पुत्र के रूप में अपनी आत्मा को प्रकट किया। उसका पुत्र सारे विश्व का प्यारा और सारी विश्वम्भरा (पृथ्वी) का पालन करने योग्य हुआ।
परम नीतिज्ञ विश्वसह राजा ने हिरण्यनाभ नाम का पुत्र पाया। हिरण्याक्ष के वैरी विष्णु के अंश से उत्पन्न होने के कारण वह अत्यन्त बलवान् हुआ। पवन की सहायता पाकर हिरण्यरेता (अग्नि) जैसे पेड़ों को असह्य हो जाता है वैसे ही इस बलवान् पुत्र की सहायता पाकर विश्वसह अपने वैरियों को असह्य हो गया। पुत्र की बदौलत विश्वसह पितरों के ऋण से छूट गया। अतएव उसने अपने को बड़ा ही भाग्यशाली समझा। उसने सोचा कि जितने सुख इस जन्म में मैंने भोगे हैं ये सब अनन्त और अविनाशी नहीं हैं। इस कारण ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे मुझे अनन्त सुखों की प्राप्ति हो। अतएव बूढ़े होने पर उसने गाँठों तक लम्बी भुजाओं वाले अपने पुत्र को तो राजा बना दिया और आप वृक्षों की छाल के कपड़े पहन कर वनवासी हो गया।