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रघुवंश।

जा जा कर उसके गले पड़ी। परन्तु जीत को बहुत दफ़े उसके पास जाने का कष्ट ही न उठाना पड़ा। राजा अतिथि का प्रताप-वृत्तान्त सुन कर ही उसके शत्रुओं का सारा उत्साह भग्न हो गया। अतएव अतिथि को उनके साथ युद्ध करने की बहुत ही कम आवश्यकता पड़ी। युद्ध उसे प्रायः दुर्लभ सा हो गया। मद की उग्र गन्ध के कारण मतवाले हाथी से और हाथी जैसे दूर भागते है वैसे ही अतिथि के शत्रु भी उसके प्रतापपुञ्ज की प्रखरता के कारण सदा उससे दूर ही रहे। उन्होंने उसका मुक़ाबला ही न किया।

बहुत बढ़ती होने पर सागर और शशाङ्क दोनों को क्षीणता प्राप्त होती है। उनकी बढ़ती सदा ही एक सी नहीं बनी रहती। परन्तु राजा अतिथि की बढ़ती सदा एक रस ही रही। चन्द्रमा और महासागर की वृद्धि का तो उसने अनुकरण किया, पर उनकी क्षीणता का अनुकरण न किया। वह बढ़ कर कभी क्षीण न हुआ।

अतिथि की दानशीलता भी अद्वितीय थी। कोई भी साक्षर सज्जन, चाहे वह कितना ही दरिद्री क्यों न हो, यदि उसके पास याचक बन कर गया तो उस ऐश्वर्य्यशाली ने उसे इतना धन दिया कि वह याचक स्वयं ही दाता बन गया—उसका आचरण मेघों का सा हो गया। मेघ जैसे पहले तो समुद्र के पास याचक बन कर जल लेने जाते हैं, पर पीछे से उसी जल का दान वे दूसरों को देते हैं, जैसे ही अतिथि के याचक भी उससे अनन्त धनराशि पा कर और उसे औरों को देकर दाता बन गये।

अतिथि ने जितने काम किये सब स्तुतियोग्य ही किये। कभी उसने कोई काम ऐसा न किया जो प्रशंसायोग्य न हो। परन्तु, सर्वथा प्रशंसनीय होने पर भी, यदि काई उसकी स्तुति करता तो वह लज्जित होकर अपना सिर नीचा कर लेता। वह प्रशंसा चाहता ही न था। प्रशंसकों और स्तुतिकर्त्ताओं से वह हार्द्दिक द्वेष रखता था। तिस पर भी उसका यश कम होने के बदले दिन पर दिन बढ़ता ही गया। उदित हुए सूर्य्य की तरह अपने दर्शन से प्रजा के पाप, और तत्त्वज्ञान के उपदेश से प्रजा के अज्ञानरूपी तम, को दूर करके उसने अपने प्रजा-वर्ग को सदा के लिए अपने अधीन कर लिया। उसके गुणों पर उसके शत्रु तक मोहित हो गये। कलाधर की किरणें कमलों के भीतर, और दिनकर की किरण कुमुद-कोशों के भीतर, नहीं प्रवेश पा सकतीं। परन्तु अतिथि जैसे महागुणी के गुणों ने उसके वैरियों के हृदयों तक में प्रवेश पा लिया।

अतिथि ने साधारण राजाओं के लिए अति दुष्कर अश्वमेध-यज्ञ भी कर डाला। इस कारण उसे दिग्विजय करना पड़ा। यद्यपि नीति