को मित्र बनाना चाहिए। यही समझ कर उसने ऐसों को मित्र बनाया जो न तो हीन ही थे और न बलवान् ही थे।
यदि किसी पर चढ़ाई करने की आवश्यकता जान पड़ी तो बिना सोचे समझे कभी उसने युद्ध-यात्रा न की। पहले उसने अपनी और अपने शत्रु की सेना के बलाबल का विचार किया; फिर देश और काल आदि का। तदनन्तर, यदि उसने सब बातें अपने अनुकूल देखीं और शत्रु उसे अपने से कमज़ोर मालूम हुआ, तो वह उस पर चढ़ गया। अन्यथा चुप चाप अपने घर बैठा रहा।
राजा के लिए ख़जाने की बड़ी ज़रूरत होती है। जिसके पास खज़़ाना नहीं वह निर्बल समझा जाता है, अन्य नरेश उससे नहीं डरते और उसका समुचित आदर भी नहीं करते। ख़ज़ाने से राजाही को नहीं, और लोगों को भी बहुत आसरा रहता है। देखिए न, चातक जल भरे मेघही की स्तुति करते हैं, निर्जल मेघ की नहीं। यही सोच कर अतिथि ने खूब अर्थ-सञ्चय करके अपना ख़ज़ाना बढ़ाया। लोभ के वशीभूत होकर उसने ऐसा नहीं किया। सिर्फ़ यह जान कर धनसञ्चय किया कि उससे बहुत काम निकलता है।
अपने वैरियों के उद्योगों पर उसने सदा कड़ी नज़र रखी। जहाँ उसने देखा कि कोई उसके प्रतिकूल कुछ उद्योग कर रहा है तहाँ उसके उद्योग को उसने तुरन्तही विफल कर दिया। पर उसने अपने उद्योगों को शत्रुओं के द्वारा ज़रा भी हानि न पहुँचने दी। इसी तरह वह अपनी कमज़ोरियों को तो छिपाये रहा, पर जिस बात में शत्रुओं को कमज़ोर देखा उसी का लक्ष्य करके उन पर उसने प्रहार किया।
दण्डधारी राजा अतिथि ने अपनी विपुल सेना को सदाही प्रसन्न और सन्तुष्ट रक्खा। यहाँ तक कि उसने उसे अपने शरीर के सदृश समझा, जितनी परवा उसने अपने शरीर की की उतनीहीं सेना की भी। सच तो यह है कि उसकी सेना और उसकी देह दोनों तुल्य थी भी। जिस तरह उसके पिता ने पाल पोस कर उसकी देह को बड़ा किया था उसी तरह उसने सेना की भी नित्य वृद्धि की थी। जिस तरह उसने शस्त्रविद्या सीखी थी उसी तरह उसकी सेना ने भी सीखी थी। जिस तरह युद्ध करना वह अपना कर्त्तव्य समझता था उसी तरह सेना भी युद्ध ही के लिए थी।
सर्प के सिर की मणि पर जैसे कोई हाथ नहीं लगा सकता वैसेही अतिथि की प्रभाव, उत्साह और मन्त्र नामक तीनों शक्तियों पर भी उसके