"महाराज, मैं इस बात को अच्छी तरह जानता हूँ कि कारणवश मनुष्य का अवतार लेने वाले भगवान् विष्णु के आप पुत्र हैं। पुत्र क्या आप उनकी दूसरी मूर्त्ति हैं, क्योंकि पुत्र तो आत्मा का प्रतिबिम्ब ही होता है। अतएव, आप सर्वथा मेरे द्वारा आराधना किये जाने योग्य हैं। फिर भला यह कैसे सम्भव था कि मैं कोई बात आपके प्रतिकूल करके आपका अप्रीति-भाजन बनता। आपको मैं कदापि अप्रसन्न नहीं कर सकता। बात यह हुई कि यह लड़की गेंद खेल रही थी। हाथ के आघात से एक बार इसकी गेंद ऊपर को ऊँची चली गई। उसे यह सिर उठाये देख रही थी कि इतने में आपका विजयशील भूषण, आकाश से गिरती हुई उल्का की तरह, बड़े वेग के साथ कुण्ड से नीचे गिरता हुआ दिखाई दिया। इस कारण कुतूहल में आकर इसने उसे उठा लिया। सो इसे आप अब अपनी बलवती भुजा पर फिर धारण कर लें—उस भुजा पर जो आपके घुटनों तक पहुँचती है, जो धनुष की प्रत्यञ्चा की रगड़ का चिरस्थायी चिह्न धारण किये हुए है, और जो पृथ्वी की रक्षा के लिए अगला का काम देती है। मेरी छोटी बहन, इस कुमुद्वती, ने सच मुच ही आपका बड़ा भारी अपराध किया है। अतएव, आपके चरणों की चिरकाल सेवा करके यह उस अपराध की मार्ज्जना करने की इच्छुक है। मेरी प्रार्थना है कि आप इसे अपनी अनुचरी बनाने में आना-कानी न करें"।
इस प्रकार प्रार्थना करके कुमुद ने वह आभूषण कुश के हवाले कर दिया। उसे पाकर और कुमुद की शालीनता देख कर कुश ने कहाः—
"मैं आपको अपना सम्बन्धी ही समझता हूँ। आप सर्वथा प्रशंसायोग्य हैं"।
तब बन्धु-बान्धवों सहित कुमुद ने, अपने कुल का वह कन्यारूपी भूषण, विधिपूर्वक, कुश को भेंट कर दिया। कुश ने धर्म्माचरण के निमित्त, यथाशास्त्र, कुमुद्वती से विवाह किया। जिस समय ऊन का मङ्गलसूचक कङ्कण धारण किये हुए कुमुद्वती के कर को कुश ने, प्रज्वलित पावक को साक्षी करके, ग्रहण किया उस समय पहले तो देवताओं की बजाई हुई तुरहियों की ध्वनि दिशाओं के छोर तक छा गई, फिर आश्चर्य्यकारक मेघों के बरसाये हुए महा-सुगन्धित फूलों से पृथ्वी पूर्ण हो गई।
इस प्रकार त्रिभुवनगुरु रामचन्द्रजी के औरस पुत्र, मैथिलीनन्दन, कुश, और तक्षक के पाँचवें बेटे कुमुद का, पारस्परिक सम्बन्ध हो गया। इस सम्बन्ध के कारण अपने बाप तक्षक के मारने वाले सर्प-शत्रु गरुड़ के