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रघुवंश।

खम्भों से, हाथी बाँध दिये गये। बाज़ार की दुकानों में बिक्री की चीज़ें भी यथास्थान रख दी गईं। उस समय सजी हुई अयोध्या—सारे अङ्गों में आभूषण धारण किये हुए सुन्दरी स्त्री के समान—मालूम होने लगी। उजड़ने के पहले वह जैसी थी वैसी ही फिर हो गई। उसकी पहली शोभा उसे फिर प्राप्त हो गई। रघुवंशियों की इस मनोरमणीय नगरी में निवास करके, मैथिली-नन्दन कुश ने न अमरावती ही को कुछ समझा और न अलकापुरी ही को। इन दोनों नगरियों का राज्य पाकर उनका स्वामी होने की इच्छा उसके मन में न उत्पन्न हुई। उसने अलका के स्वामी कुबेर और अमरावती के स्वामी इन्द्र के वैभव से भी अपने वैभव को अधिक समझा। फिर, भला, क्यों उसका जी इन लोगों की राजधानियों में निवास करने को चाहे?

इतने में ग्रीष्म ऋतु का आगमन हुआ। यह वह ऋतु है जिसमें रत्न टँके हुए डुपट्टे ओढ़े जाते हैं; लम्बे लम्बे हार धारँ किये जाते हैं; और, वस्त्र इतने बारीक पहने जाते हैं कि साँस चलने ही से उड़ जायँ। कुश की प्रियतमाओं को ऐसे ही वस्त्र और ऐसे ही हार धारण करने की शिक्षा देने ही के लिए मानों ग्रीष्म ने, इस समय, आने की कृपा की।

ग्रीष्म का आगमन होते ही भगवान भास्कर, अगस्त्य के चिह्न वाले अयन, अर्थात् दक्षिणायन, से प्रस्थान करके उत्तर दिशा के पास आ गये। अतएव, बहुत दिनों के बाद, सूर्य्य का समागम होने से, उत्तर दिशा के आनन्द की सीमा न रही। उसने आनन्द से शीतल हुए आँसुओं की वृष्टि के सदृश, हिमालय के हिम की धारा बहा दी। गरमी पड़ते ही हिमालय का बर्फ़ गल कर बहने लगा। इधर दिन का ताप बढ़ने लगा; उधर रात भी धीरे धीरे क्षीण होने लगी। अतएव, इस समय, दिन-रात की दशा उस पति-पत्नी के जोड़े के सदृश हो गई जिसने विरुद्ध आचरण करके पहले तो एक दूसरे को अप्रसन्न कर दिया हो; पर अलग हो जाने पर, पीछे से, जो पछताने बैठा हो। घर की बावलियों का जल, सिवार जमी हुई सीढ़ियों को छोड़ता हुआ, दिन पर दिन, नीचे जाने लगा। फल यह हुआ कि वह स्त्रियों की कमर तक ही रह गया और कमलों के नाल जल के ऊपर निकले हुए दिखाई देने लगे। उपवनों में, सायङ्काल फूलने वाली चमेली की कलियाँ जिस समय खिलीं, सारा वन उनकी सुगन्धि से महक उठा। अतएव, सब कहीं से भौंरे दौड़ पड़े और एक एक फूल पर पैर रख कर इस तरह गुञ्जार करने लगे मानो वे फूलों की गिनती कर रहे हों—मानों वे यह कह रहे हों कि एक का रस ले लिया, दो का रस ले लिया, तीन का रस ले लिया; अभी इतने और बाक़ी हैं।