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रघुवंश।

मेरा क्लेश कुछ कम हो जाय। कुश का कटक इतना बड़ा था कि उसके छोटे से भी छोटे अंश को देख कर यही मालूम होता था कि वह पूरा कटक है। अतएव, रात भर किसी जगह रहने के बाद, प्रातःकाल, आगे बढ़ने के लिए तैयारी करते समय उसकी टोलियों को चाहे कोई देखे; चाहे आगे के पड़ाव पर, सन्ध्या समय, उतरते हुए उन्हें कोई देखे; चाहे मार्ग में चलते समय उन्हें कोई देखे—देखने वाले को वे टोलियाँ पूरेही कटक सी मालूम होती थीं। सेनानायक कुश की सेना में हाथियों और घोड़ों की गिनती ही न थी। हाथी मद से मतवाले हो रहे थे। उनकी कनपटियों से मद की धारा बहती थी। उसके संयोग से मार्ग की धूल को कीचड़ का रूप प्राप्त हो जाता था। परन्तु हाथियों के पीछे जब सवारों की सेना आती थी तब घोड़ों की टापों के आघात से उस कीचड़ की फिर भी धूल हो जाती थी।


धीरे धीरे कुश का वह कटक विन्ध्याचल के नीचे, उसकी तराई में, पहुँच गया। वहाँ उसके कई भाग कर दिये गये। प्रत्येक भाग को इस बात का पता लगाने की आज्ञा हुई कि रास्ता कहाँ कहाँ से है और किस रास्ते जाने से आराम मिलेगा। अतएव, सेना की कितनीही टोलियाँ तराई में रास्ता ढूँढ़ने लगीं। उनका तुमुल नाद विन्ध्याचल की कन्दराओं तक के भीतर घुस गया। फल यह हुआ कि नर्म्मदा के घोर नाद की तरह, सेना के व्योमव्यापी नाद ने भी विन्ध्य-पर्वत की गुफाओं को गुञ्जायमान कर दिया। वहाँ पर किरात लोगों की बस्ती अधिक थी। वे लोग तरह, तरह की भेंटें लेकर कुश के पास उपस्थित हुए। पर राजा ने उनकी भेटों को केवल प्रसन्नतासूचक दृष्टि से देख कर ही लौटा दिया। यथासमय वह विन्ध्याचल को पार गया। पार करने में एक बात यह हुई कि पर्वत के पास गेरू आदि धातुओं की अधिकता होने के कारण उसके रथ के पहियों की हालें लाल हो गईं।

रास्ते में एक तो कटक के ही चलने से बेहद कोलाहल होता था। इस पर तुरहियाँ भी बजती थीं। अतएव दोनों का नाद मिल कर ऐसा घनघोर रूप धारण करता था कि पृथ्वी और आकाश को एक कर देता था।

विन्ध्य-तीर्थ में आकर कुश ने गङ्गा में हाथियों का पुल बाँध दिया। इस कारण पूर्व वाहिनी गङ्गा, जब तक वह अपनी सेना-सहित उतर नहीं गया, पश्चिम की ओर बहती रही। हाथियों के यूथों ने धारा के बीच में खड़े होकर उसके बहाव को रोक दिया। अतएव लाचार होकर गङ्गाजी को उलटा बहना