कमरे में जाग रहा था। उस समय उसे, प्रोषितपतिका के वेश में, अकस्मात्, एक ऐसी स्त्री देख पड़ी जिससे वह बिलकुल ही अपरिचित था—जिसे उसने कभी पहले न देखा था। उसकी वेशभूषा परदेशी पुरुषों की स्त्रियों के सदृश थी। वह इन्द्र-तुल्य तेजस्वी, शत्रुओं पर विजय पाने वाले, सज्जनों के लिए भी अपनी ही तरह अपने राज्य की ऋद्धियाँ सुलभ कर देने वाले, बहु-कुटुम्बी, राजा कुश के सामने, जय-जयकार करके, हाथ जोड़ खड़ी हो गई।
दर्पण के भीतर छाया की तरह कर उस स्त्री को बन्द घर के भीतर घुस आई देख, दशरथ-नन्दन के बेटे कुश को बड़ा विस्मय हुआ। उसने मन में कहा कि दरवाज़े तो सब बन्द हैं, यह भीतर आई तो किस रास्ते आई! आश्चर्य्य-चकित होकर उसने अपने शरीर का ऊपरी भाग पलँग से कुछ ऊपर उठाया और उस स्त्री से इस प्रकार प्रश्न करने लगा:—
"क्या तू योगविद्या जानती है जो दरवाज़े बन्द रहने पर भी तू इस गुप्त स्थान में आ गई? तेरे आकार और रंग-ढंग से तो यह बात नहीं सूचित होती; क्योंकि तेरा रूप दीन-दुखियों का सा है; और, योगियों को कभी दुःख का अनुभव नहीं होता। तू तो शीत के उपद्रव से मुरझाई हुई कमलिनी का सा रूप धारण किये हुए है। हे कल्याणी! बता तू कौन है? किस की स्त्री है? और, किस लिए मेरे पास आई है? परन्तु, इन प्रश्नों का उत्तर देते समय तू इस बात को न भूलना कि रघुवंशी जितेन्द्रिय होते हैं। दूसरे की स्त्री की तरफ़ वे कभी आँख उठा कर नहीं देखते; उनका मन पर-स्त्री से सदा ही विमुख रहता है"।
यह सुन कर वह बोली:—
"हे राजा! आपके पिता जिस समय अपने लोक को जाने लगे उस समय वे अपनी निर्दोष पुरी के निवासियों को भी अपने साथ लेते गये। अतएव वह उजाड़ हो गई। मैं उसी अनाथ अयोध्या की अधिष्ठात्री देवी हूँ। एक दिन वह था जब मैं प्रखर-प्रतापी और विश्वविख्यात राजाओं की राजधानी थी। मेरे यहाँ नित नये उत्सव हुआ करते थे। अपनी विभूति से मैं अलकापुरी को भी कुछ न समझती थी। परन्तु हाय! वही मैं, आज, तुझ सर्वशक्तिसम्पन्न रघुवंशी के होते हुए भी, इस दीन दशा को पहुँच गई हूँ। मेरी बस्ती के परकोटे टूट-फूट गये हैं। उसके मकानों की छतें गिर पड़ी हैं। उसके बड़े बड़े सैकड़ों महल खँडहर हो गये हैं। बिना मालिक के इस समय उसकी बड़ी ही दुर्दशा है। आज कल वह डूबते हुए सूर्य्य और प्रचण्ड पवन के छितराये हुए मेघों वाली सन्ध्या की होड़ कर रही है।