का राजा बना दिया। भरत ने उस देश में जाकर वहाँ के निवासी गन्धर्वों को युद्ध में ऐसी करारी हार दी कि उन बेचारों को हाथ से हथियार रख कर एक मात्र वीणा ही ग्रहण करनी पड़ी। राज-पाट का झंझट छोड़ कर वे अपना गाने बजाने का पेशा करने को लाचार हुए। सिन्धु-देश में अपना दब-दबा जमा कर भरतजी ने वहाँ की तक्षशिला नामक एक राजधानी में तो अपने पुत्र तक्ष का राज्याभिषेक कर दिया और पुष्कलावती नामक दूसरी राजधानी में दूसरे पुत्र पुष्कल का। भरतजी के ये दोनों पुत्र बहुगुण-सम्पन्न, अतएव, राजा होने के सर्वथा योग्य थे। उनका अभिषेक करके भरतजी अयोध्या को लौट आये।
अब रह गये लक्ष्मणजी के पुत्र अङ्गद और चन्द्रकेतु। उन्हें भी उनके पिता ने, रामचन्द्रजी की आज्ञा से, कारापथ नामक देश का राजा बना दिया। वे भी अङ्गदपुरी और चन्द्रकान्ता नामक राजधानियों में राज्य करने लगे।
इस तरह लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के पुत्रों को राजा बना कर और प्रत्येक को अलग अलग राज्य देकर, रामचन्द्रजी और उनके भाई निश्चिन्त हो गये।
बूढ़ी होने पर, रामचन्द्र आदि की मातायें—कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी—शरीर छोड़ कर पति-लोक को पधारीं। माताओं के मरने पर, नरेश-शिरोमणि रामचन्द्रजी और उनके भाइयों ने प्रत्येक की श्राद्ध आदि और्ध्वदेहिक क्रियायें, क्रम से, विधिपूर्वक, कीं।
एक दिन की बात है कि मृत्यु महाराज, मुनि का वेश धारण करके, रामचन्द्रजी के पास आये और बोले:—
"महाराज! मैं आप से एकान्त में कुछ कहना चाहता हूँ। आप यह प्रतिज्ञा कीजिए कि जो कोई हम दोनों को बातचीत करते देख लेगा उसका आप परित्याग कर देंगे"।
रामचन्द्रजी ने कहा:—"बहुत अच्छा। मुझे मञ्ज़ूर है"।
तब काल ने अपना असली रूप प्रकट करके कहा कि अब आपके स्वर्ग-गमन का समय आ गया। अतएव, ब्रह्मा की आज्ञा से, आपको वहाँ जाने के लिए अब तैयार हो जाना चाहिए।
इतने में रामचन्द्रजी के दर्शन की इच्छा से दुर्वासा ऋषि राजद्वार पर आ पहुँचे। लक्ष्मणजी, उस समय, द्वारपाल का काम कर रहे थे। काल