रामचन्द्रजी के इस प्रश्न के उत्तर में उन दोनों भाइयों ने महर्षि वाल्मीकि का नाम बताया।
यह सुन कर रामचन्द्रजी के आनन्द का ठिकाना न रहा। वे तुरन्त अपने भाइयों को साथ लेकर, वाल्मीकिजी के पास गये, और, एकमात्र अपने शरीर को छोड़ कर अपना सारा राज्य उन्हें दे डाला। इस पर परम-कारुणिक वाल्मीकिजी ने उनसे कहा:—"मिथिलेश-नन्दिनी की कोख से उत्पन्न हुए ये दोनों बालक आप ही के पुत्र हैं। अब आप कृपा करके सीता को ग्रहण कर लें"।
रामचन्द्रजी बोले:—
"तात! आपकी बहू, मेरी आँखों के सामने ही, अग्नि में अपनी विशुद्धता का परिचय दे चुकी है। मैं उसे सर्वथा शुद्ध समझता हूँ। परन्तु दुरात्मा रावण के यहाँ रहने के कारण, यहाँ की प्रजा ने उस पर विश्वास न किया। अब यदि मैथिली, किसी तरह, अपनी चरित-सम्बन्धिनी शुद्धता पर प्रजा को विश्वास दिला दे तो मैं, आपकी आज्ञा से, उसे पुत्र सहित ग्रहण कर लूँगा"।
रामचन्द की इस प्रतिज्ञा को सुन कर बाल्मीकिजी ने शिष्यों के द्वारा जानकीजी को—नियमों के द्वारा अपनी अर्थ-सिद्धि की तरह—आश्रम से बुला भेजा।
दूसरे दिन, रामचन्द्रजी ने पुरवासियों को एकत्र किया और जिस निमित्त सीताजी बुलाई गई थीं उसकी सिद्धि के लिए उन्होंने वाल्मीकिजी को बुला भेजा। दोनों पुत्रों सहित सीताजी को साथ लेकर, महामुनि वाल्मीकिजी, परम-तेजस्वी रामचन्द्रजी के सामने, उपस्थित हुए। उस समय वे ऐसे मालूम हुए जैसे स्वर और संस्कार से युक्त गायत्री ऋचा को लेकर वे भासमान् भास्कर के सामने उपस्थित हुए हों। उस अवसर पर, सीताजी गेरुवे वस्त्र धारण किये हुए थीं और नीचे, पृथ्वी की तरफ़, देख रही थीं। दृष्टि उनकी अपने पैरों पर थी। उनका इस तरह का शान्त शरीर ही मानों यह कह रहा था कि वे सर्वथा शुद्ध हैं; उन पर किसी तरह का सन्देह करना भूल है।
ज्योंही लोगों ने सीताजी को देखा त्योंही उनकी दृष्टि नीचे को हो गई। उन्होंने सीताजी के दृष्टि-पथ से अपनी आँखें हटा लीं। पके हुए धानों की तरह, सबके सब, सिर झुका कर, जहाँ के तहाँ, स्तब्ध खड़े रह गये। महर्षि वाल्मीकि तो रामचन्द्रजी की सभा में, आसन पर, बैठ गये; पर सीताजी