महल की छत से वे, सोने के सदृश रङ्गवाले चक्रवाक-पक्षियों से युक्त नीलवर्ण यमुना को—पृथ्वी की सुवर्ण-जटित वेणी के समान—देख कर बहुत ही प्रसन्न हुए।
मन्त्रों के आविष्कारकर्त्ता महामुनि वाल्मीकिजी दशरथ के भी मित्र थे और जनक जी के भी। मिथिलेश-नन्दिनी सीताजी के पुत्रों के दादा और नाना पर वाल्मीकिजी की विशेष प्रीति होने के कारण, उन्होंने उन दोनों सद्योजात शिशुओं के जात-कर्म आदि संस्कार, विधिपूर्वक, बहुत ही अच्छी तरह, किये। उत्पन्न होने के अनन्तर उनके शरीर पर जो गर्भसम्बन्धी मल लगा हुआ था उसे आदि-कवि ने, अपने ही हाथ से, कुश और लव (गाय की पूँछ के बाल) से साफ़ किया। इस कारण उन्होंने उन दोनों शिशुओं का नाम भी कुश और लव ही रक्खा। बाल्य-काल बीत जाने पर जब वे किशोरावस्था को प्राप्त हुए तब मुनिवर ने पहले तो उन्हें वेद और वेदाङ्ग पढ़ाया। फिर, भावी कवियों के लिए कवित्व-प्राप्ति की सीढ़ी का काम देने वाली अपनी कविता, अर्थात् रामायण, पढ़ाई। यही नहीं, किन्तु रामायण को गाकर पढ़ना भी उन्होंने लव-कुश को सिखा दिया। रामचन्द्र के मधुर वृत्तान्त से परिपूर्ण रामायण को, अपनी माता के सामने गा कर, उन दोनों बालकों ने जानकीजी की रामचन्द्र-सम्बन्धिनी वियोग-व्यथा को कुछ कुछ कम कर दिया।
गार्हपत्य, दक्षिण और आहवनीय नामक तीनों अग्नियों के समान तेजस्वी अन्य भी—लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न नामक—तीनों रघुवंशियों की गर्भवती पत्नियों के, अपने अपने पति के संयोग से, दो दो पुत्र हुए।
इधर शत्रुघ्न को मथुरा में रहते बहुत दिन हो गये। अतएव, अयोध्या को लौट कर अपने बड़े भाई के दर्शन करने के लिए उनका मन उत्कण्ठित हो उठा। उन्होंने मथुरा और विदिशा का राज्य तो अपने विद्वान् पुत्र शत्रुघाती और सुबाहु को सौंप दिया और आप अयोध्या को लौट चले। उन्होंने कहाः—"अब की दफ़े वाल्मीकि के आश्रम की राह से न जाना चाहिए। वहाँ जाने और ठहरने से मुनिवर की तपस्या में विघ्न आता है। इस कारण, सीताजी के सुतों का गाना सुनने में निमग्न हुए हरिणोंवाले वाल्मीकिजी के आश्रम को छोड़ कर वे उसके पास से निकल गये।
प्रजा ने जब सुना कि लवणासुर को मार कर शत्रुघ्न आ रहे हैं तब उसे बड़ी ख़ुशी हुई। सब लोगों ने अयोध्या के प्रत्येक गली-कूचे को तोरण और बन्दनवार आदि से ख़ूब ही सजाया। इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाले कुमार शत्रुघ्न ने जिस समय अयोध्यापुरी में प्रवेश किया उस समय