काल, पवित्र-सलिला तमसा में स्नान करके, आश्रम में आये हुए अतिथियों का ये विधिपूर्व्वक सत्कार करने लगीं। पेड़ों की छाल के ही वस्त्र धारण करके और जङ्गली कन्द-मूल तथा फल-फूल खाकर ही किसी तरह उन्होंने, अपने पति के वंश की रक्षा करने के लिए, अपने शरीर को जीवित रखने का निश्चय किया।
उधर मेघनाद का मर्दन करने वाले लक्ष्मणजी अयोध्या लौट गये। उन्होंने मन में कहा, भगवान् करे रामचन्द्रजी को अपने कृत्य पर अब भी पछतावा आवे। यह सोच कर वे बहुत ही उत्सुक हो उठे और बड़े भाई की आज्ञा पूर्ण करने का सारा वृत्तान्त, सीताजी के रोने-धोने और विलाप करने तक, उन्होंने उनको एक एक करके कह सुनाया। उसे सुन कर रामचन्द्रजी को महा दुःख हुआ। ओस बरसाने वाले पूस के चन्द्रमा के समान वे अश्रुपूर्ण हो गये। उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। बात यह थी कि रामचन्द्रजी ने मन से सीताजी को घर से न निकाला था; किन्तु लोकापवाद के डर से उन्होंने ऐसा किया था। बुद्धिमान् और समझदार होने के कारण किसी तरह उन्होंने अपने शोक को, बिना किसी के समझाये बुझाये, आप ही अपने काबू में कर लिया। स्वस्थ होने पर, सजग होकर वे फिर वर्णाश्रम की रक्षा करने और रजोगुण को अपने मन से दूर करके राज्य के शासन में चित्त देने लगे। परन्तु उस उतने बड़े और समृद्धिशाली राज्य का उपभोग उन्होंने अकेले ही न किया। भाइयों का भी उसमें हिस्सा समझ कर उन्होंने उन्हें भी, अपने ही सदृश, उसका उपभोग करने दिया।
राजलक्ष्मी की अब बन आई। अपनी अकेली एक, सो भी महा-पतिव्रता, पत्नी को, लोकापवाद के डर से, छोड़ देने वाले राजा रामचन्द्र के हृदय में वह अत्यन्त सुख से रहने लगी। रामचन्द्र ने सीता को क्या निकाला, मानों लक्ष्मी को बिना सौत का कर दिया। फिर भला क्यों न वह बड़े सुख से रहे और क्यों न उसकी दीप्ति की नित नई बढ़ती हो।
सीता का परित्याग करके रावण के वैरी रामचन्द्र ने दूसरा विवाह न किया। यज्ञों के अनुष्ठान के समय जब जब पत्नी की उपस्थिति की आवश्यकता हुई तब तब उन्होंने सीता की ही मूर्त्ति अपने पास रख कर सारी धार्म्मिक क्रियायें निपटाईं। सीताजी पर यह उनकी कृपा ही समझनी चाहिए। क्योंकि, यह बात जब सीताजी के कान तक पहुँची तब उनका शोक कुछ कम हो गया और अपने दुःसह परित्याग-दुःख को उन्होंने किसी तरह सह लिया। यदि रामचन्द्रजी उन पर इतनी भी दया न दिखाते तो दुःखाधिक्य से दबी हुई सीता की न मालूम क्या दशा होती!