किये जायँगे। उनमें ज़रा भी त्रुटि न होने पावेगी। पुण्यतोया तमसा नदी मेरे आश्रम के पास ही बहती है। उसमें स्नान करने से मनुष्य के सारे पाप छूट जाते हैं। इसीसे, कुटियाँ निर्म्माण करके, उसके किनारे किनारे, कितने ही ऋषि-मुनि रहते हैं। तू भी उसमें नित्य स्नान करके, उसके वालुका-पूर्ण तट पर, देवताओं की पूजा-अर्चा किया करना। इससे तुझे बहुत कुछ शान्ति मिलेगी और तेरे चित्त की उदासीनता जाती रहेगी। तुझे वहाँ अकेली न रहना पड़ेगा। आश्रमों में अनेक मुनि-कन्यायें भी हैं। वे तेरा मनोविनोद किया करेंगी। जिस ऋतु में जो फल-फूल होते हैं उन्हें वे वन से लाया करती हैं। बिना जोते बोये उत्पन्न होने वाले अन्न भी वे पूजा के लिए लाती हैं। वे सब बड़ी ही मधुरभाषिणी और शीलवती हैं। उनके साथ रहने और उनसे बात-चीत करने से तुझे अवश्य ही शान्ति मिलेगी। मीठी मीठी बातें करके, तुझ पर पड़े हुए इस नये दुःख को वे बहुत कुछ कम कर देंगी। तेरा जी चाहे तो अपनी शक्ति के अनुसार तू आश्रम के छोटे छोटे पौधों को घड़ों से पानी दिया करना। इससे पुत्रोत्पत्ति के पहले ही तुझे यह मालूम हो जायगा कि सन्तान पर माता की कितनी ममता होती है। मेरी बातों को तू सच समझ। उनमें तुझे ज़रा भी सन्देह न करना चाहिए"।
दयार्द्रहृदय वाल्मीकि के इन आश्वासनपूर्ण वचनों को सुन कर सीताजी ने अपनी कृतज्ञता प्रकट की। मुनिवर के इस दयालुतादर्शक बरताव की उन्होंने बड़ी बड़ाई की और उन्हें बहुत धन्यवाद दिया। सायङ्काल वाल्मीकिजी उन्हें अपने आश्रम में ले आये। उस समय कितने ही हरिण, आश्रम की वेदी को चारों ओर से घेरे, बैठे हुए थे और जंगली पशु, वहाँ, शान्तभाव से आनन्दपूर्वक घूम रहे थे। आश्रम के प्रभाव से हिंसक जीव भी, अपनी हिंसक-वृत्ति छोड़ कर, एक दूसरे के साथ वहाँ मित्रवत् व्यवहार करते थे।
जिस समय सीताजी आश्रम में पहुँचीं उस समय वहाँ की तपस्विनी स्त्रियाँ बहुत ही प्रसन्न हुईं। अमावास्या का दिन जिस तरह, पितरों के द्वारा सारा सार खींच लिये गये चन्द्रमा की अन्तिम कला को, ओषधियों को सौंप देता है उसी तरह वाल्मीकिजी ने उस दीन-दुखिया और शोक-विह्वला सीता को उन तपस्विनियों के सुपुर्द कर दिया।
तपस्वियों की पत्नियों ने सीताजी को बड़े आदर-सत्कार से लिया। उन्होंने पूजा के उपरान्त, कुछ रात बीतने पर, उन्हें रहने के लिए एक पर्णशाला दी। उसमें उन्होंने इञ्जुदी के तेल का एक दीपक जला दिया और सोने के लिए एक पवित्र मृगचर्म्म बिछा दिया। तब से सीताजी वहीं रहने और अन्यान्य तपस्विनी स्त्रियों के सदृश काम करने लगीं। नित्य, प्रातः-