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रघुवंश।

हैं। वे आपके चरित को बहुत ही प्रशंसनीय समझते हैं। हाँ, एक बात को वे अच्छा नहीं कहते—राक्षस के घर में रही हुई रानी को ग्रहण कर लेना वे बुरा समझते हैं। बस, आपके इसी एक काम की निन्दा हो रही है"।

यह सुन कर वैदेही-वल्लभ रामचन्द्रजी के हृदय पर कड़ी चोट लगी। पत्नी-सम्बन्धिनी इस निन्दा को उन्होंने अपने लिए बहुत बड़े अपयश का कारण समझा। उससे उनका हृदय—लोहे के घोर घन के आघात से तपे हुए लोहे के समान-विदीर्ण हो गया। वे गहरे विचार में मग्न हो गये। वे सोचने लगे:—यह जो मुझ पर कलङ्क लगाया जाता है उसकी बात मैं सुनी अनसुनी करदूँ या निर्दोष पत्नी को छोड़ दूँ? क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आता? कुछ देर तक, इन दोनों बातों में से एक का भी निश्चय उनसे न हो सका। उनका चित्त झूले की तरह चलायमान होकर कभी एक की तरफ़ चला गया कभी दूसरी की तरफ़। अन्त में उन्होंने स्थिर किया कि यह कलङ्क और किसी तरह नहीं मिट सकता। इसे दूर करने के लिए पत्नी-त्याग के सिवा और कोई इलाज ही नहीं। अतएव उन्होंने सीता का परित्याग कर देना ही निश्चित किया। सच तो यह है कि जो लोग यश को ही सब धनों से श्रेष्ठ समझते हैं उन्हें अपने शरीर से भी यश अधिक प्यारा होता है। धन-सम्पत्ति, भोग-विलास और स्त्री-पुत्र आदि से भी वह अधिक प्यारा होगा, इसके कहने की तो आवश्यकता ही नहीं।

रामचन्द्र पर इस घटना का बहुत बुरा असर हुआ। उनका तेज क्षीण हो गया। उनके चेहरे पर उदासीनता छा गई। उन्होंने अपने तीनों भाइयों को बुला भेजा। वे आये तो उन्होंने रामचन्द्रजी की बुरी दशा देखी। अतएव वे घबरा गये। उनसे रामचन्द्र ने अपनी निन्दा का वृत्तान्त वर्णन करके कहा:—

"भाई! जिस वंश के हम लोग अङकुर हैं वह सूर्य्य से उत्पन्न हुए राजर्षियों का वंश है। उसी पर इस कलङ्क का आरोप हुआ है। यह तो तुमसे छिपा ही नहीं कि मेरा आचरण सर्वथा शुद्ध है। तथापि मुँह की भीगी हुई वायु के कारण उत्पन्न हुए स्वच्छ दर्पण के धब्बे की तरह—मेरे कारण इस उज्ज्वल वंश पर कलङ्क का यह टीका लग रहा है। पानी की लहरों में तेल की बूँद की तरह, यह पुरवासियों में फैलता ही चला जा रहा है। आज तक, इस वंश पर, इस तरह का कलङ्क कभी न लगा था। यह पहला ही मौका है। अतएव, हाथी जैसे अपने बन्धनस्तम्भ को नहीं सह सकता वैसे ही मैं भी इसे नहीं सह सकता। मुझे यह अत्यन्त असह्य है। इसे मेटने के लिए—इससे बचने के लिए—मैं जनकसुता को उसी तरह