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तेरहवाँ सर्ग।


रामचन्द्र की आज्ञा से, बन्दरों की सेना के स्वामी, मनुष्य का रूप धारण करके, बड़े बड़े हाथियों पर सवार हो गये। हाथी थे मतवाले। उनके शरीर से, कई जगह, मद की धारा झर रही थी। अतएव गजारोही सेनापतियों को झरने झरते हुए पहाड़ों पर चढ़ने का सा आनन्द आया।

निशाचरों के राजा विभीषण भी, दशरथ-नन्दन रामचन्द्र की आज्ञा से, अपने साथियों सहित रथ पर सवार हुए। रामचन्द्र के रथों को देख कर विभीषण को बड़ा आश्चर्य्य हुआ। विभीषण के रथ माया से रचे गये थे और रामचन्द्र के रथ कारीगरों के बनाये हुए थे। परन्तु रामचन्द्र के रथों की शोभा और सुन्दरता विभीषण के रथों से कहीं बढ़कर थी।

तदनन्तर, अपने छोटे भाई लक्ष्मण और भरत को साथ लेकर, रामचन्द्रजी लहराती हुई पताका से शोभित और आरोही की इच्छा के अनुसार चलने वाले पुष्पक-विमान पर फिर सवार हुए। उस समय वे चमकती हुई बिजलीवाले सायङ्कालीन बादल पर, बुध और बृहस्पति के योग से शोभायमान, चन्द्रमा के समान मालूम हुए।

वहाँ, रथ पर, प्रलय से आदि-वराह की उद्धार की हुई पृथ्वी के समान, अथवा मेघों की घटा से शरत्काल की उद्धार की हुई चन्द की चन्द्रिका के समान—दशकण्ठ के कठोर संकट से रामचन्द्र की उद्धार की हुई धैर्य्यवती सीता की वन्दना भरत ने बड़े ही भक्ति-भाव से की। रावण की प्रणयपूर्ण विनती भङ्ग करने के व्रत की रक्षा में दृढ़ता दिखानेवाले जानकीजी के वन्दनीय चरणों पर, भरत ने, बड़े भाई का अनुकरण करने के कारण, बढ़ी हुई जटाओं वाला अपना मस्तक रख दिया। उस समय जानकीजी के पूजनीय पैरों के जोड़े और साधु-शिरोमणि भरत के जटाधारी शीश ने, परस्पर मिल कर, एक दूसरे की पवित्रता को और भी अधिक कर दिया।

आगे आगे अयोध्या की प्रजा चली; उसके पीछे धीरे धीरे रामचन्दजी का विमान। आध कोस चलने पर अयोध्या का विस्तृत उद्यान मिला। उसमें शत्रुघ्न ने डेरे लगवा कर उन्हें ख़ूब सजा रक्खा था। विमान से उतर कर वहीं रामचन्द्रजी ठहर गये।