रामचन्दजी के इतना कह चुकने पर विमान को उनके मन की बात विदित हो गई। वह जान गया कि अब वे उतरना चाहते हैं। विमान में एक प्रकार का देवतापन था। वह अपने अधिदेवता की प्रेरणा से, देवता ही की तरह सारे काम करता था। अतएव वह आकाश से उतर पड़ा। उस समय, भरत के पीछे पीछे आती हुई अयोध्या की प्रजा ने उसे बड़ी ही विस्मयपूर्ण दृष्टि से देखा। ज़मीन से थोड़ी ही उँचाई पर आकर विमान ठहर गया। तब स्फटिक-मणि जड़े हुए डण्डोंवाली सीढ़ी उससे लटका दी गई। ज़मीन पर उसके टिक जाने पर, विभीषण ने, आगे बढ़ कर, कहा—"महाराज, इसी पर पैर रख कर उतर आइए"। सुग्रीव भी रामचन्द्र की सेवा में सदा ही दत्तचित्त रहते थे। उन्होंने अपने हाथ का सहारा दिया और रामचन्द्रजी उसे थाम कर तुरन्तही विमान से उतर पड़े।
रामचन्द्र विनीत तो बड़े ही थे। उतर कर पहले तो उन्होंने इक्ष्वाकु वंश के गुरु, महर्षि वशिष्ठ को दण्डप्रणाम किया। तदनन्तर, भाई भरत का दिया हुआ अर्घ्य ग्रहण करके, आँखों से आँसू बहाते हुए, उन्होंने भरत को गले से लिपटा लिया। फिर, उन्होंने बड़े ही प्रेम से भरत का मस्तक सूँघा—वह मस्तक जिसने रामचन्द्रजी की भक्ति के वशीभूत होकर, पिता के दिये हुए राज्य के महाभिषेक का परित्याग कर दिया था। भरत के साथ उनके बूढ़े बूढ़े मन्त्री भी थे। चौदह वर्ष से हजामत न कराने के कारण उनकी डाढ़ियों के बाल बेतरह बढ़ रहे थे। अतएव, उनके चेहरे कुछ के कुछ हो गये थे। वे बढ़ी हुई बरोहियों या जटाओं वाले बरगद के वृक्षों की तरह मालूम हो रहे थे। भरत और रामचन्द्र का मिलाप हो चुकने पर, मन्त्रियों ने बड़े ही भक्ति-भाव से रामचन्द्र को प्रणाम किया। रामचन्द्रजी ने प्रसन्नतापूर्ण दृष्टि से उनकी तरफ़ देखा और मीठी वाणी से कुशल-समाचार पूछ कर उन पर अपना अनुग्रह प्रकट किया।
इसके बाद, रामचन्द्रजी ने सुग्रीव और विभीषण का परिचय भरत से कराया। वे बोले:—"भाई, ये रीछों और बन्दरों के राजा सुग्रीव हैं। इन्होंने विपत्ति में मेरा साथ दिया था। और, ये पुलस्त्यपुत्र विभीषण हैं। युद्ध में सबसे आगे इन्हीं का हाथ उठा था। पहला प्रहार सदा इन्हींने किया था"। रामचन्द्र के मुख से सुग्रीव और विभीषण की इतनी बड़ाई सुन कर, भरत ने लक्ष्मण को तो छोड़ दिया; इन्हीं दोनों को उन्होंने बड़े आदर से प्रणाम किया। तदनन्तर, वे सुमित्रा-नन्दन श्रीलक्ष्मण से मिले और उनके चरणों पर अपना सिर रख दिया। लक्ष्मण ने भरत को उठा कर बलपूर्व्वक अपने हृदय से लगा लिया। उस समय ऐसा मालूम हुआ जैसे मेघनाद के प्रहारों के घाव लगने के कारण कर्कश हुए अपने वक्षःस्थल से लक्ष्मणजी भरत की भुजाओं के बीचवाले भाग को पीड़ित सा कर रहे है।