दिशाओं में व्याप्त है वैसे ही इसके विस्तार से भी दसो दिशायें व्याप्त हैं—कोई दिशा ऐसी नहीं जिसमें यह न हो। विष्णु ही की तरह न इसके रूप का ठीक ठीक ज्ञान हो सकता है और न इसके विस्तार ही का। निश्चयपूर्वक कोई यह नहीं कह सकता कि समुद्र इतना है अथवा इस तरह का है। जैसे विष्णु का यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता वैसेही इसका भी नहीं हो सकता।
"युगों के अन्त में, सारे लोकों का संहार करके, प्रलय होने पर, आदि-पुरुष विष्णु इसी में योग-निद्रा को प्राप्त होते हैं। उस समय उनकी नाभि से उत्पन्न हुए, कमल पर बैठने वाले पहले प्रजापति, इसी के भीतर, उनकी स्तुति करते हैं। यह बड़ा ही दयालु है। शरण आये हुओं की यह सदा रक्षा करता है। शत्रुओं से पीड़ित हुए राजा जैसे किसी धर्मिष्ठ राजा को मध्यस्थ मान कर उसकी शरण जाते है वैसे ही इन्द्र के वज्र से पंख कटे हुए सैकड़ों पर्वत इसके आसरे रहते हैं। इन्द्र के कोप-भाजन होने से उन बेचारों का सारा गर्व चूर हो गया है। वे यद्यपि सर्वथा दीन हैं, तथापि यह उनका तिरस्कार नहीं करता। उन्हें अपनी शरण में रख कर उनकी रक्षा कर रहा है। आदि-वराह ने जिस समय पृथ्वी को पाताल से ऊपर उठाया था उस समय, प्रलय के कारण, बढ़े हुए इसके स्वच्छ जल ने, पृथ्वी का मुँह ढक कर, क्षण मात्र के लिए उसके घूँघट का काम किया था।
"और लोग अपनी पत्नियों के साथ जैसा व्यवहार करते हैं ठीक वैसा ही व्यवहार यह नहीं करता। इसके व्यवहार में कुछ विलक्षणता है। यह अपने तरङ्गरूपी अधरों का ख़ुद भी दान देने में बड़ा निपुण है। धृष्टता-पूर्वक इससे संगम करने वाली नदियों को यह ख़ुद भी पीता है और उनसे अपने को भी पिलाता है। यह विलक्षणता नहीं तो क्या है?
"ज़रा इन तिमि-जाति की मछलियों या व्हेलों को तो देख। ये अपने बड़े बड़े मुँह खोल कर, नदियों के मुहानों में, न मालूम कितना पानी पी लेती हैं। पानी के साथ छोटे छोटे जीव-जन्तु भी इनके मुँहों में चले जाते हैं। उन्हें निगल कर ये अपने मुँह बन्द कर लेती हैं और अपने सिरों से, जिनमें छोटे छोटे छेद हैं, उस पानी के प्रवाह को फ़ौवारे की तरह ऊपर फेंक देती हैं।
"ये मतङ्गाकार मगर—जलहस्ती—भी अच्छा तमाशा कर रहे हैं। जल के भीतर से सहसा ऊपर उठ कर समुद्र के फेने को ये द्विधा विभक्त कर देते हैं। फेने के बीच में इनके एकाएक प्रकट हो जाने से फेना इधर उधर दो टुकड़ों में बँट जाता है। कुछ तो वह इनकी एक कनपटी पर फैल जाता