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बारहवाँ सर्ग।

कपीश्वर से मित्रता की। सुग्रीव भी उसी व्यथा में लिप्त था जिसमें रामचन्द्र थे। उसके भाई बालि ने उसकी स्त्री भी हर ली थी और उसका राज्य भी। वीरवर रामचन्द्र ने बालि को मार कर सुग्रीव को उसकी जगह पर—धातु के स्थान पर आदेश की तरह—बिठा दिया। सुग्रीव को अपने भाई का पद पाने की आकांक्षा बहुत दिनों से थी। वह रामचन्द्र की बदौलत पूरी हो गई।

पत्नी के वियोग से रामचन्द्र को बड़ा दुःख हुआ। अतएव सुग्रीव ने अपने सेवक सहस्रशः कपियों को सीता की खोज में भेजा। वे लोग, रामचन्द्र के मनोरथों की तरह, इधर उधर घूमने और सीता का पता लगाने लगे। भाग्यवश जटायु के बड़े भाई सम्पाति से उनकी भेंट हो गई। उससे उन्हें सीता का पता मिल गया। उन्होंने सुना कि सीता को रावण अपनी राजधानी लङ्का को ले गया है और वहाँ उसने अशोक वाटिका में उन्हें रक्खा है। यह सुन कर पवनपुत्र हनूमान् समुद्र को इस तरह पार कर गये जिस तरह कि ममता छोड़ा हुआ मनुष्य संसार-सागर को पार कर जाता है। लङ्का में ढूँढ़ते ढूँढ़ते उन्हें सीताजी मिल गईं। उन्होंने देखा कि विष की बेलों से घिरी हुई सञ्जीवनी बूटी की तरह सीताजी राक्षसियों से घिरी हुई बैठी हैं। तब उन्होंने पहचान के लिए रामचन्द्रजी की अँगूठी सीताजी को दी। अँगूठी के रूप में पति का भेजा हुआ चिह्न पाकर जानकी के आनन्द की सीमा न रही। उनकी आँखों से आनन्द के शीतल आँसुओं की झड़ी लग गई। आँसुओं ने निकल कर उस अँगूठी का आदर सा किया—उसे अर्घ्य सा देकर उसकी सेवा की। हनूमान् के मुख से रामचन्द्रजी का सन्देश सुन कर सीताजी को बहुत कुछ धीरज हुआ।

लङ्का में हनुमान ने रावण के बेटे अक्षकुमार को मार डाला। इस विजय से हनूमान् का साहस और भी बढ़ गया। अतएव उन्होंने और भी अधिक उद्दण्डता दिखाई। यहाँ तक कि उन्होंने लङ्का-पुरी का जला कर ख़ाक कर दिया। मेघनाद ने उन्हें कुछ देर तक ब्रह्मास्त्र से बाँध कर अवश्य रक्खा; पर जीत उन्हीं की रही। उन्हें अधिक तङ्ग नहीं होना पड़ा।

लङ्का से लौट कर सौभाग्यशाली हनूमान् ने जानकीजी का चित्र रामचन्द्रजी को दिया। यह चिह्न जानकी जी की चूड़ामणि के रूप में था। उसे पाकर रामचन्द्रजी को परमानन्द हुआ। उन्होंने उस मणि को अपने ही मन से आये हुए, जानकीजी के मूर्त्तिमान् हृदय के समान, समझा। उन्होंने कहा, यह जानकी की चूड़ामणि नहीं है; यह तो उनका साक्षात् हृदय है, जो चूडामणि के रूप में मेरे पास आकर उपस्थित हुआ है। उसे उन्होंने