वाली विदेहतनया सीता उस समय लक्ष्मी के समान शोभायमान हुई। कैकेयी ने यद्यपि राज्यलक्ष्मी को रामचन्द्र के पास नहीं आने दिया—यद्यपि उसने उसे रामचन्द्र के पास जाने से रोक दिया—तथापि लक्ष्मी ठहरी गुणग्राहिणी। वह किसी की रोक-टोक की परवा करनेवाली नहीं। परवा वह सिर्फ़ गुण की करती है। जहाँ वह गुण देखती है वहीं पहुँच जाती है। अतएव, रामचन्द्र में अनेक गुणों का वास देख कर वह सीताजी के बहाने रामचन्द्र के साथ चली आई और साथ ही साथ रही।
महर्षि अत्रि के आश्रम में उनकी पत्नी अनसूया ने सीताजी को एक ऐसा उबटन दिया जिसकी परम पवित्र सुगन्धि से सारा वन महक उठा। यहाँ तक कि भौँरों ने फूलों का सुवास लेना छोड़ दिया। वे सीताजी के शरीर पर लगे हुए उबटन की अलौकिक सन्धि से खिँच कर उन्हीं की तरफ़ दौड़ दौड़ आने लगे।
राह में रामचन्द्र को विराध नामक गक्षस मिला। वह सायङ्कालीन मेघों की तरह लालिमा लिये हुए भूरे रङ्ग का था। चन्द्रमा के मार्ग को राहु की तरह, वह रामचन्द्र के मार्ग को रोक कर खड़ा हो गया। इतना ही नहीं, किन्तु उस लोकसन्तापकारी राक्षस ने राम और लक्ष्मण के बीच से सीता को इस तरह हर लिया जिस तरह कि पर्जन्य का प्रतिबन्धक कारण सावन और भादों के बीच से वर्षा को हर लेता है। राम-लक्ष्मण ने उसे अपने भुज-बल से बेतरह पीस कर मार डाला। परन्तु उसकी लाश को उन्होंने वहीं पड़ी रहने देना मुनासिब न समझा। उन्होंने कहा कि यदि यह इस तरह पड़ी रहेगी तो इसकी अपवित्र दुर्गन्धि से आश्रम की भूमि दूषित हो जायगी। अतएव उन्होंने उसे ज़मीन में गाड़ दिया।
महर्षि अगस्त्य ने रामचन्द्र को सलाह दी कि अब आप पञ्चवटी में जाकर कुछ दिन रहें। रामचन्द्र ने उनकी आज्ञा को सिर पर धारण करके पञ्चवटी के लिए प्रस्थान किया। ऊपर, आकाश की ओर, बढ़ना बन्द करके विन्ध्याचल जिस तरह अगस्त्य की आज्ञा से अपनी मामूली उँचाई से आगे न बढ़ा था—अपनी मर्य्यादा के भीतर ही रह गया था—उसी तरह मुनि की आज्ञा से रामचन्द्रजी भी लोक और वेद की मर्य्यादा का उल्लंघन न करके पञ्चवटी में वास करने लगे।
वहाँ एक विलक्षण घटना हुई। रावण की छोटी बहन, जिसका नाम शूर्पणखा था, रामचन्द्र की मोहिनी मूर्त्ति देख कर उन पर आसक्त हो गई। अतएव, ग्रीष्म की गरमी की सताई नागिन जैसे चन्दन के वृक्ष के पास दौड़ जाती है वैसे ही वह भी अपना शरीरज सन्ताप शमन करने के लिए