करता रहूँगा। रामचन्द्र ने भरत की यह बात मानली और खड़ाऊँ दे दीं। उन्हें लेकर भरतजी अयोध्या को लौट आये; परन्तु नगर के भीतर न गये। नन्दिग्राम नामक स्थान में, नगर के बाहर ही, वे रहने और अयोध्या के राज्य को बड़े भाई रामचन्द्र की धरोहर समझ कर उसकी रक्षा करने लगे। बड़े भाई के बड़े ही दृढ़ भक्त बने रहना और राज्य के लोभ में न पड़ना भरत के आत्मत्याग का उत्कृष्ट उदाहरण है। ऐसे अद्भुत आत्मत्याग के रूप में उन्होंने मानों अपनी माता कैकेयी के पापक्षालन का प्रायश्चित्त सा कर दिखाया।
उधर रामचन्द्रजी मिथिलेशनन्दिनी सीता और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ—कन्द, मूल और फल आदि के आहार से जीवन-यात्रा का निर्वाह करते हुए, बड़े ही शान्त भाव से, वन वन घूमने लगे। इक्ष्वाकु-कुल के राजा, बूढ़े होने पर, जिस वनवास-व्रत को धारण करते थे उसे रामचन्द्र ने युवावस्था ही में धारण कर लिया।
एक दिन की बात है कि रामचन्द्र घूमते फिरते एक पेड़ के नीचे बैठ गये। उन्हें बैठा देख, उनके प्रभाव से उस पेड़ की छाया थम सी गई। जहाँ पर वे बैठे थे वहाँ से उसके हट जाने का समय आने पर भी वह वहीं बनी रही, हटी नहीं। रामचन्द्र, उस समय, कुछ थके से थे। अतएव सीता की गोद में सिर रख कर वे सो गये। उसी समय इन्द्र का पुत्र जयन्त, कौवे का रूप धर कर, वहाँ आया। उसने अपने नखों से सीताजी के वक्षःस्थल पर इतनी निर्दयता से प्रहार किया कि ख़ून निकल आया। इस पर सीताजी ने रामचन्द्र को जगाया। तब उन्होंने सींक का एक ऐसा बाण मारा कि उस कौवे को उससे पीछा छुड़ाना कठिन हो गया। अन्त को अपनी एक आँख देकर किसी तरह उसने उस बाण से अपनी जान बचाई। बाण ने उसकी एक आँख फोड़ कर उसे छोड़ दिया।
इस घटना के उपरान्त रामचन्द्र ने सोचा कि चित्रकूट अयोध्या से बहुत दूर नहीं। यहाँ रहने से भरत का फिर चित्रकूट आना बहुत सम्भव है। इससे कहीं दूर जाकर रहना चाहिए। रामचन्द्र को चित्रकूट में रहते यद्यपि बहुत दिन न हुए थे तथापि पशु-पक्षी तक उनसे प्रीति करने लगे थे। हिरन तो उनसे बहुत ही हिल गये थे। तथापि, पूर्वोक्त कारण से, उन्हें यह प्रीति-बन्धन तोड़ना पड़ा। चित्रकूट-पर्व्वत की भूमि उन्होंने छोड़ दी। अतिथियों का आदर-सत्कार करनेवाले ऋषियों के आश्रमों में—वर्षा ऋतु से सम्बन्ध रखनेवाले आर्द्रा, पुनर्वसु आदि नक्षत्रों में सूर्य्य के समान—कुछ कुछ दिन तक वास करते हुए वे दक्षिण दिशा को गये। उनके पीछे पीछे जाने