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ग्यारहवाँ सर्ग।

साथ आये। तदनन्तर वे मिथिला को लौट गये और दशरथजी ने अयोध्या का मार्ग लिया।

राह में, एक दिन, अकस्मात्, बड़े ज़ोर से उलटी हवा चलने और दशरथ के ध्वजारूपी पेड़ों को बेतरह झकझोरने लगी। नदी का बढ़ा हुआ जलप्रवाह जिस तरह किनारों को तोड़ कर सूखी ज़मीन को नष्ट-भ्रष्ट करने लगता है उसी तरह उस वेगवान् वायु ने दशरथ की सेना को पीड़ित करना आरम्भ कर दिया। आँधी बन्द होने पर सूर्य्य के चारों तरफ़ एक बड़ाही भयानक परिधि-मण्डल दिखाई दिया। उस घेरे के बीच में सूर्य्य ऐसा मालूम हुआ जैसे गरुड़ के मारे हुए साँप के फन से गिरी हुई मणि उसके मृत शरीर की कुण्डली के बीच में रक्खी हो। उस समय दिशाओं की बड़ी ही बुरी दशा हुई। भूरे भूरे पंख फैलाये हुए चील्हें चारों तरफ़ उड़ने लगीं। वही मानो दिशाओं की बिखरी हुई धूसर रङ्ग की अलकें हुईं। लाल रङ्ग के सायङ्कालीन मेघ दिगन्त में छा गये। वही मानों दिशाओं के रक्तवर्ण वस्त्र बन गये। सब कहीं रजही रज, अर्थात् धूलही धूल, दिखाई देने लगी। रजोवती हो जाने से दिशायें दर्शन-योग्य न रह गईं। उनकी दशा मलिनवसना अस्पृश्य स्त्री के सदृश हो गई। अतएव उनकी तरफ़ आँख उठा कर देखने का जी न चाहने लगा। जिस दिशा में सूर्य्य था उस दिशा में गीदड़ियाँ इस तरह रोने लगीं कि सुन कर डर मालूम होने लगा। क्षत्रियों के रुधिर से परलोकगत पिता का तर्पण करने की परशुराम को आदत सी पड़ गई थी। रो रो कर गीदड़ियाँ उन्हें, क्षत्रियों का पुनरपि संहार करने के लिए, मानो उभाड़ने सा लगीं।

उलटी हवा चलना और शृगालियों का रोना आदि अनेक अशकुन होते देख दशरथजी घबरा उठे। शकुन-अशकुन पहचानने में वे बहुत निपुण थे और ऐसे मौक़ों पर क्या करना चाहिए, यह भी जानते थे। अतएव उन्होंने अपने गुरु से पूछा कि महाराज! इन अशकुनों की शान्ति के लिए क्या करना चाहिए। गुरु ने उत्तर दिया:—"घबराने की बात नहीं। इनका परिणाम अच्छा ही होगा"। यह सुन कर दशरथ का चित्त कुछ स्थिर हुआ, उनकी मनोव्यथा कुछ कम हो गई।

इतने में ज्योति का एक पुञ्ज अकस्मात् उठा और दशरथ की सेना के सामने तत्कालही प्रकट हो गया। उसका आकार मनुष्य का था। परन्तु सैनिकों की आँखें तिलमिला जाने से पहले वे उसे पहचानही न सके। बड़ी देर तक आँखें मलने के बाद जो उन्होंने देखा तो ज्ञात हुआ कि वह तेजापुञ्ज पुरुष परशुरामजी हैं। उनके कन्धे पर पड़ा हुआ

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