समय स्नेहाधिक्य के कारण राजा का कण्ठ भर आया। उसकी आँखों से निकले हुए आँसू, पैरों पर पड़े हुए राम-लक्ष्मण के ऊपर, टपाटप गिरने लगे। उनसे उन दोनों की चोटियाँ भीग गईं—आँसुओं से उनके सिर के बाल कुछ कुछ आर्द्र हो गये। ख़ैर, किसी तरह, पिता से विदा होकर और अपना अपना धनुष सँभाल कर वे विश्वामित्र के पीछे पीछे चले। पुरवासी उन्हें टकटकी लगा कर देखने लगे। उस समय राम-लक्ष्मण के मार्ग में, पुरवासियों की चावभरी दृष्टियों ने तोरण का काम किया। मार्ग में, राम लक्ष्मण के सामने सब तरफ़ से आई हुई दृष्टियों की मेहराबें सी बनती चली गईं।
विश्वामित्र ने दशरथ से राम और लक्ष्मण ही को माँगा था। उन्हें इन्हीं दोनों की आवश्यकता थी। अतएव राजा ने अपने पुत्रों के साथ सेना न दी; हाँ आशीष अवश्य दी। उसने आशीष ही को राम लक्ष्मण की रक्षा के लिए यथेष्ट समझा। इसी से उसने आशीष ही साथ कर दी, सेना नहीं। इसके बाद वे दोनों राजकुमार अपनी माताओं के पास गये और उनके पैर छूकर महातेजस्वी विश्वामित्र के साथ हो लिये। उस समय मुनि के मार्ग में प्राप्त होकर वे ऐसे मालूम हुए जैसे गति के वशीभूत होकर सूर्य्य के मार्ग में फिरते हुए चैत और वैशाख के महीने मालूम होते हैं।
राजकुमार बालक तो थे ही। इस कारण चपलता उनमें स्वाभाविक थी। उनकी भुजायें तरङ्गों के समान चञ्चल थीं। वे शान्त न रहती थीं। मार्ग में, चलते समय भी, कुछ न कुछ करती ही जाती थीं। परन्तु उनकी ये बाल-लीलायें बुरी न लगती थीं। वे उलटा भली मालूम होती थीं। वर्षा-ऋतु में उद्ध्य और भिद्य नामक नद, अपने नाम के अनुसार, जैसी चेष्टा करते हैं वैसी ही चेष्टा राम और लक्ष्मण की भी थी। उनकी चेष्टा और चपलता उद्धत होने पर भी जी लुभाने वाली थी।
महामुनि विश्वामित्र ने राम-लक्ष्मण को बला और अतिबला नाम की दो विद्यायें सिखा दीं। उनके प्रभाव से उन्हें ज़रा भी थकावट न मालूम हुई। चलने से उन्हें कुछ भी श्रम न हुआ। यद्यपि वे महलों के भीतर रत्नखचित भूमि पर ही चलने वाले थे, तथापि, इन विद्या की बदौलत, मुनि के साथ मार्ग चलना उन्हें ऐसा मालूम हुआ जैसे वे अपनी माताओं के पास आनन्द से खेल रह हों। दशरथ से विश्वामित्र की मित्रता थी। वे उनके पुत्रों का भी बड़ा प्यार करते थे। ये चाहते थे कि राम-लक्ष्मण को राह चलने में कष्ट न हो। इस कारण वे तरह तरह की कथायें और पुरानी बातें राजकुमारों को सुनाने लगे। कुमारों को ये आख्यान इतने
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