दैत्यों के संहार-कर्त्ता विष्णु भगवान् के इस प्रकार दर्शन करके देवताओं ने उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया। तदनन्तर, जिन भगवान् की महिमा के पार न मन ही जा सकता है, न वाणी ही जा सकती है, और, जिनकी चाहे जितनी स्तुति की जाय कम है, उनका गुणगान वे इस तरह करने लगे:—
"आपही इस विश्व की उत्पत्ति करके पहले इसके कर्त्ता बनते हैं; तदनन्तर आपही इसका पालन-पोषण करके इसके भर्त्ता की उपाधि ग्रहण करते हैं, और, अन्त में, आपही इसका संहार करके इसके हर्त्ता हो जाते हैं। एक होकर भी आप, इस प्रकार, तीन रूप वाले हैं। आपको हमारा बार-बार नमस्कार। आकाश से गिरे हुए जल का स्वादु असल में एक ही, अर्थात् मीठा, होता है। परन्तु जहाँ पर वह गिरता है वहाँ की ज़मीन जैसी होती है उसके अनुसार उसके स्वादु में अन्तर पड़ जाता है—कहीं वह खारी हो जाता है, कहीं कसैला, कहीं कड़ुवा। इसी तरह आप यद्यपि एक रूप हैं—आपका असली रूप यद्यपि एक ही है; उसमें कभी विकार नहीं होता—तथापि भिन्न भिन्न गुणों के आश्रय से आपका रूप भी भिन्न भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त हो जाता है। सत्त्व-गुण के आश्रय से आप सतोगुणी, रजोगुण के आश्रय से रजोगुणी और तमोगुण के आश्रय से तमोगुणी हो जाते हैं। आप स्वयं तो अपरिमेय हैं, पर इस सारे ब्रह्माण्ड को आपने माप डाला है। स्वयं तो आप किसी वस्तु की कामना नहीं रखते; पर औरों की कामनायें पूर्ण करने में आप अद्वितीय हैं। आप सदा ही सब पर विजय पाते हैं, पर, आज तक, कोई भी, कभी, आपको नहीं जीत सका। स्वयं अत्यन्त सूक्ष्म होकर भी, आप ही इस स्थूल सृष्टि के आदि-कारण हैं। भगवन्! आप हृदय के भीतर बैठे हुए भी बहुत दूर मालूम होते हैं। यह हमारा मत नहीं, बड़े बड़े पहुँचे हुए महात्माओं का मत है। वे कहते हैं कि आप निष्काम होकर भी तपस्वी है; दयालु होकर भी दुःख से दूर हैं; पुराण-पुरुष होकर भी कभी बूढ़े नहीं होते। आप सब कुछ जानते हैं; आप को कोई नहीं जानता। आप ही से सब कुछ उत्पन्न हुआ है; आपको उत्पन्न करने वाला कोई नहीं—आप स्वयं ही उत्पन्न हुए हैं। आप सब के प्रभु हैं; आपका कोई प्रभु नहीं। आप एक होकर भी सर्वरूप हैं; ऐसी कोई चीज़ नहीं जिसमें आपकी सत्ता न हो। सातों समुद्रों के जल में सोनेवाले आपही को बड़े बड़े विद्वान् भूर्भुवः स्वः आदि सातों लोकों का आश्रय बताते हैं। वे कहते हैं कि 'रथन्तरं', 'बृहद्रथन्तरं' आदि सातों सामों में आपही का गुण-कीर्तन है; और काली, कराली आदि सातों शिखाओं वाली अग्नि आप ही का मुख है। चार मुखवाले आपही से चतुर्वर्ग–अर्थात् धर्म, अर्थ, काम,