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नवाँ सर्ग।

कुमार बाण से बिधा हुआ तड़प रहा है और उसके पास ही उसका घड़ा पड़ा है। इस पर दशरथ को बड़ा दुःख हुआ। उसने भी अपने हृदय के भीतर बाण घुस गया सा समझा। वह प्रसिद्ध सूर्य्यवंशी राजा तत्कालही घोड़े से उतर पड़ा और उस शरविद्ध बालक के पास जाकर उसने उसका नाम-धाम पूछा। घड़े पर शरीर रख कर उसके सहारे पड़े हुए बालक ने, टूटे हुए शब्दों में, किसी तरह, बड़े कष्ट से उत्तर दिया:—"मैं एक ऐसे तपस्वी का पुत्र हूँ जो ब्राह्मण नहीं। मुझे आप ऐसा ही बाण से छिदा हुआ मेरे अन्धे माँ-बाप के पास पहुँचा दीजिए"। राजा ने तत्कालही उसकी आज्ञा का पालन किया। उसके माँ-बाप के पास पहुँच कर राजा ने निवेदन किया कि यह दुष्कर्म्म भूल से मुझसे हो गया है। जान बूझ कर मैं ने आपके पुत्र को नहीं मारा।

मुनि-कुमार के अन्धे माँ-बाप के एकमात्र वही पुत्र था। उसकी यह गति हुई देख उन दोनों ने बहुत विलाप किया। तदनन्तर, पुत्र के हृदय में छिदे हुए बाण को उन्होंने दशरथही के हाथ से निकलवाया। बाण निकलते ही बालक के प्राण भी निकल गये। तब उस बूढ़े तपस्वी ने हाथों पर गिरे हुए आँसुओं ही के जल से दशरथ को शाप दिया:—

"मेरी ही तरह, बुढ़ापे में, तुम्हारी भी पुत्रशोक से मृत्यु होगी"।

प्रथमापराधी दशरथ ने यह शाप सुन कर—पैर पड़ जाने से दब गये, अतएव विष उगलते हुए साँप के सदृश उस तपस्वी से इस प्रकार प्रार्थना कीः—

"भगवन्। आपने मुझ पर बड़ी ही कृपा की जो ऐसा शाप दिया। मैं आपके इस शाप को शाप नहीं, किन्तु अनुग्रह समझता हूँ। क्योंकि, अब तक मैं ने पुत्र के मुख-कमल की शोभा नहीं देखी। पर वह आपकी बदौलत देखने को मिल जायगी। सच है, ईंधन पड़ने से बढ़ी हुई आग, खेत की ज़मीन को जला कर भी, उसे बीज उपजाने वाली, अर्थात् उर्वरा, कर देती है।

यह सब हो चुकने पर राजा ने उस अन्धे तपस्वी से कहा:—"महाराज! मैं सचमुच ही महा निर्दयी और महा अपराधी हूँ। मैं सर्वथा आपके हाथ से मारा जाने योग्य हूँ। ख़ैर, जो कुछ होना था सो हो गया। अब आप मुझे क्या आज्ञा देते हैं? यह सुन कर मुनि ने अपने मृत पुत्र का अनुगमन करने की इच्छा प्रकट की। उसने स्त्री-सहित जल कर मर जाना चाहा। अतएव उसने राजा से आग और ईंधन माँगा। तब तक दशरथ के नौकर-चाकर भी उसे ढूँढ़ते हुए आ पहुँचे। मुनि की आज्ञा