कर दिया। अपने साथ उसने चुनी हुई थोड़ी सी सेना भी ले ली। उसके घोड़ों की टापों से इतनी धूल उड़ी कि आकाश में उसका चँदोवा सा तन गया। वन के पास पहुँच कर दशरथ ने वन के ही फूलों की मालाओं से अपने सिर के बाल बाँधे और पेड़ों की पत्तियों ही के रङ्ग का कवच शरीर पर धारण किया। फिर, एक तेज़ घोड़े पर सवार होकर वह वन के उस भाग में जा पहुँचा जहाँ रुरु नाम के मृगों की बहुत अधिकता थी। उस समय घोड़े के उछलने-कूदने और सरपट भागने से उसके कानों के हिलते हुए कुण्डल बहुत ही भले मालूम होने लगे। दशरथ का वह शिकारी वेश सचमुच ही बहुत मनोहर था। उसे देखने की इच्छा वन-देवताओं तक को हुई। अतएव उन्होंने, कुछ देर के लिए, पतली पतली लताओं के भीतर अपनी आत्माओं का प्रवेश करके, भौंरों की पाँतियों को अपनी आँखें बनाया। फिर, उन्होंने सुन्दर आँखों वाले, और न्यायसङ्गत शासन से कोसल-देश की प्रजा को प्रसन्न करने वाले, दशरथ को जी भर कर देखा।
राजा ने वन के जिस भाग में शिकार खेलने का निश्चय किया था वहाँ शिकारी कुत्ते और जाल ले लेकर उसके कितने ही सेवक पहले ही पहुँच गये थे। उनके साथ ही उसके कितने ही कर्मचारी शिकारी और सिपाही भी पहुँच चुके थे। उन्होंने ने वहाँ जितने चार, लुटेरे और डाकू थे सब भगा दिये। वन की दावाग्नि भी बुझा दी। राजा के पहुँचने के पहले ही उन्होंने सब तैयारी कर रक्खी। वह जगह भी शिकार के सर्वथा योग्य थी। पानी की कमी न थी। जगह जगह पर जलाशय भरे हुए थे और पहाड़ी झरने बह रहे थे। ज़मीन भी वहाँ की ख़ूब कड़ी थी; घोड़ों की टापों से वह फूट न सकती थी। हिरन, पक्षी और सुरागायें भी उसमें ख़ूब थीं। सभी बातों का सुभीता था।
सुनहली बिजली की प्रत्यञ्चा वाले पीले पीले इन्द्रधनुष को जिस तरह भादों का महीना धारण करता है उसी तरह सारी चिन्ताओं से छूटे हुए उस राजा ने, उस जगह पहुँच कर, प्रत्यञ्चा चढ़ा हुआ अपना धनुष धारण किया। उसे हाथ में लेकर उस नर-शिरोमणि ने इतने ज़ोर से टङ्कार किया कि गुफ़ाओं में सोते हुए सिंह जाग पड़े और क्रोध से गरजने लगे।
वह कुछ दूर वन में गया ही था कि सामने ही हिरनों का एक झुण्ड दिखाई दिया। उस झुण्ड के आगे तो गर्व से भरे हुए कृष्णसार नामक बड़े बड़े हिरन थे; पीछे और जाति के हिरन। वे, उस समय, चरने में लगे हुए थे। अतएव उनके मुँहों में घास दबी हुई थी। झुण्ड में कितनी ही नई ब्याई