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नवाँ सर्ग।

सञ्चय हो जाने पर, तमोगुण का सर्वथा त्याग करके, उसने यज्ञ के अनुष्ठान आरम्भ कर दिये। सिर पर शोभा पाने वाले मुकुट को तो उतार कर उसने रख दिया और यज्ञ की दीक्षा ग्रहण कर ली। तदनन्तर, उसने यूप-नामक सोने के यज्ञस्तम्भों से सरयू और तमसा के तीर परिपूर्ण कर दिये। उन स्तम्भों से इन दोनों नदियों के तटों की शोभा बहुत ही बढ़ गई। यज्ञ का आरम्भ होने पर दशरथ ने मृगचर्म्म धारण किया। कमर में कुश की मेखला पहनी। एक हाथ में पलाश का दण्ड और दूसरे में हिरन का सींग लिया। बोलना छोड़ दिया—मौन धारण कर लिया। यज्ञानुष्ठान के इन चिह्नों से सुशोभित हुए उसके शरीर में प्रवेश करके अष्टमूर्त्ति महादेव ने उसे बहुत ही अधिक मनोहर कर दिया। उसमें अनुपम कान्ति उत्पन्न हो गई। शङ्कर के निवास से दशरथ का शरीर अलौकिक शोभाशाली हो गया। उसके यज्ञकार्य निर्विघ्न समाप्त हुए। अन्त में उस जितेन्द्रिय राजा ने अवभृथ-नामक पवित्र स्नान करके यज्ञ के कामों से छुट्टी पाई।

राजा दशरथ का महत्त्व और प्रभुत्व त्रिलोक में विख्यात था। महिमा, प्रभुता और शूरवीरता आदि गुणों के कारण देवता भी उसका आदर करते थे। और, वह देवताओं की सभा में बैठने योग्य था भी। नमुचि के शत्रु, वारिवर्षी, इन्द्र को छोड़ कर और किसी के भी सामने उसने कभी अपना उन्नत मस्तक नहीं झुकाया।

राजा दशरथ बड़ा ही प्रतापी हुआ। उसमें अपूर्व बल-विक्रम था। देश-देशान्तरों तक में उसका आतङ्क छाया हुआ था। प्रभुता और अधिकार में वह इन्द्र, वरुण, यम और कुबेर के समान था। नये फूलों से ऐसे धुरन्धर चक्रवर्त्ती राजा की पूजा सी करने के लिए वसन्त ऋतु का आगमन हुआ।

वसन्त का आविर्भाव होते ही भगवान् सूर्य्य ने अपने सारथी अरुण को आशा दी:—"रथ के घोड़ों को फेर दो। अब मैं धनाधिप कुबेर की बस्ती वाली दिशा की तरफ़ जाना चाहता हूँ"। अरुण ने इस आज्ञा का तत्काल पालन किया और सूर्य्य ने, उत्तर की तरफ़ यात्रा करने के इरादे से, मलयाचल को छोड़ दिया। परिणाम यह हुआ कि जाड़ा कम हो गया और प्रातःकाल की वेला बड़ी ही मनोहारिणी मालूम होने लगी।

पादपों से परिपूर्ण वन-भूमि में उतर कर वसन्त ने, क्रम क्रम से, अपना रूप प्रकट कियाः—पहले तो पेड़ों पर फूलों की उत्पत्ति हुई। फिर नये नये कोमल पत्ते निकल आये। तदनन्तर भौंरों की गुञ्जार और कोयलों की कूक सुनाई पड़ने लगी।

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