को अपने पास न फटकने दिया। बड़ी मुस्तैदी से वह प्रजा पालन और देश शासन करने लगा। उसने कहा:—"इस लक्ष्मी का विश्वास करना भूल है। कहीं ज़रा सा भी छेद पाने से—कुछ भी बहाना इसे मिल जाने से—यह फिर नहीं ठहरती। अतएव अपना कर्त्तव्य-पालन सावधानतापूर्वक करना चाहिए। ऐसा न हो जो यह आलस ही को छिद्र (दोष) समझ कर मुझ से रूठ जाय। अतएव मुझे छोड़ जाने के लिए मैं इसे मौक़ा ही न दूँगा"। परन्तु दशरथ का यह सन्देह निर्मूल था। क्योंकि कमलासना लक्ष्मी पतिव्रता है। इस कारण याचकों का आदर-सत्कार करके मुँहमाँगा धन देने वाले उस ककुत्स्यवंशी राजा, और विष्णु भगवान्, को छोड़ कर और था ऐसा कौन जिसकी सेवा करने के लिए वह उसके पास जा सकती? लक्ष्मी की की हुई सेवा का सुख उठाने के पात्र उस समय, विष्णु और विष्णु के समकक्ष दशरथ ही थे, और कोई नहीं।
अपना राज्य दृढ़ कर चुकने पर दशरथ ने विवाह किया। पर्वतों की बेटियाँ नदियों ने सागर को जिस तरह अपना पति बनाया है उसी तरह मगध, कोशल और केकय देश के राजाओं की बेटियों ने, शत्रुओं पर बाणवर्षा करने वाले दशरथ को, अपना पति बनाया। अपनी उन तीनों प्रियतमा रानियों के साथ वह ऐसा मालूम हुआ जैसे प्रजा की रक्षा के लिए प्रभाव, मन्त्र और उत्साह नामक तीनों शक्तियों के साथ, सुरेश्वर इन्द्र पृथ्वी पर उतर आया हो।
शत्रु-नाश का उपाय करने में वह बड़ा ही निपुण था। महारथी भी वह एक ही था। अतएव उसे एक समय इन्द्र की सहायता करनी पड़ी। दैत्यों के मुक़ाबले में देवताओं के लिए घनघोर युद्ध करके उसने अद्भुत वीरता दिखाई। युद्ध में देवताओं ही की जीत हुई। दशरथ के शरों के प्रभाव से देवनारियों का सारा डर छूट गया। दैत्यों के उत्पात से उन्हें छुटकारा मिल गया। इससे वे दशरथ की बड़ी कृतज्ञ हुईं और उसकी भुजाओं के प्रबल पराक्रम की उन्होंने बड़ी बड़ाई की। उसकी प्रशंसा में उन्होंने गीत तक गाये। इस युद्ध में धनुष हाथ में लिये और अपने रथ पर सवार महाबली दशरथ ने, इन्द्र के आगे बढ़ कर, अकेले ही इतना भीषण युद्ध किया कि युद्ध के मैदान में उड़ी हुई धूल से सूर्य्य छिप सा गया। यह देख दशरथ ने दैत्यों के रुधिर की नदियाँ बहा कर सूर्य का अवरोध करने वाली उस धूल को एकदम दूर कर दिया—उसे साफ़ धो डाला। ऐसा उसे कई दफ़े करना पड़ा, एक ही दफ़े नहीं।
दशरथ ने अपने भुजबल से अपार सम्पत्ति एकत्र कर ली। एक भी दिशा ऐसी न थी जहाँ से वह ढेरों सोना न लाया हो। इस प्रकार बहुत सा धन-