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आठवाँ सर्ग।

दुःसह दुःख सहते हुए अपनी करनी पर रोवे। इन पापियों ने अच्छा धोखा खाया! परिश्रम के कारण उत्पन्न हुए पसीने के बूँद तो अब तक तेरे मुँह पर वर्त्तमान हैं, पर स्वयं तू वर्तमान नहीं। तेरी आत्मा तो अस्त हो गई, प्राण तो तेरे चले गये; पर पसीने के बूँद तेरे बने हुए हैं! देहधारियों की इस असारता को धिक्कार! मैंने कभी भी तेरी इच्छा के प्रतिकूल कोई काम नहीं किया। वैसा काम करना तो दूर रहा, कभी इस तरह के विचारों को भी मैंने अपने मन में नहीं आने दिया। फिर मेरे साथ इतनी निठुराई क्यों? यह सच है कि मैं पृथ्वी का भी पति कहलाता हूँ। परन्तु यह केवल कहने की बात है, यथार्थ बात नहीं। मेरे मन का गहरा अनुराग तो तुझी में रहा है। एक मात्र तुझी को मैं अपनी पत्नी समझता रहा हूँ, पृथ्वी को नहीं। लोग चाहे जो कहें; सच वही है जो मैं कह रहा हूँ।

"हे सुन्दर जंघाओं वाली! पवन की प्रेरणा से तेरी फूल से गुँथी हुई, बलखाई हुई, भौंरों के समान काली काली ये अलकें, इस समय, हिल रही हैं। इन्हें इस तरह हिला डुला कर पवन मुझे इस बात की आशा सी दिला रहा है कि तू अभी, कुछ देर में, फिर उठ बैठेगी—तू मरी नहीं। इससे, प्रिये! सचेत होकर—रात के समय, एकाएक चमक कर, हिमालय की गुफ़ा के भीतरी अन्धकार को ओषधि की तरह—शीघ्र ही तू मेरे दुःख को दूर कर दे। उठ बैठ! अचेतनता छोड़। बिखरी हुई अलकों वाला तेरा यह मौन मुख, इस समय, उस कमल के समान हो रहा है जो रात हो जाने से बन्द हो गया हो और जिसके भीतर भौंरों की गुञ्जार न सुनाई देती हो। सोते हुए निःशब्द कमल के समान तेरे इस मुख को देख कर मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है। रात से चन्द्रमा का वियोग हो जाने पर फिर भी वह उसे मिल जाती है। इसी तरह चकवे के साथ चकवी का भी फिर मिलाप हो जाता है। इसी से वे दोनों, किसी तरह, अपने वियोग-दुःख को सह लेते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी अपनी प्रियतमाओं के फिर मिलने की आशा रहती है। परन्तु तेरे तो फिर मिलने की मुझे कुछ भी आशा नहीं। तू तो सदा ही के लिए मुझे छोड़ गई। फिर, भला, तेरा वियोग मुझे आग की तरह क्यों न जलावे? हाँ, सुजंघे! एक बात तो बता। नये निकले हुए लाल लाल पत्तों के बिछाने पर भी लेटने से तेरा मृदुल गात दुखने लगता था। सो वही अब जलती हुई चिता पर कैसे चढ़ेगा? उसकी ज्याला वह किस तरह सहेगा? यह सोच कर मेरी तो छाती फटी जाती है। देख, तेरी इस करधनी की क्या दशा हुई है। इस पर तेरी बड़ी ही प्रीति थी। तू सदा इसे कमर पर ही रखती थी। एकान्त की पहली सखी