वाले सूर्य्य के सदृश कान्तिमान हुआ। दसों दिशाओं में अपना विमल यश फैलाने से उसकी बड़ी ही प्रसिद्धि हुई। बड़े बड़े विद्वानों और तपस्वियों तक ने उसकी कीर्ति के गीत गाये।
वेदाध्ययन कर के ऋषियों के, यज्ञ कर के, देवताओं के और पुत्र उत्पन्न कर के पितरों के ऋण से अज ने अपने को छुड़ा लिया। अतएव, तीनों प्रकार के ऋणों से छूटने पर, उसकी ऐसी शोभा हुई जैसी कि चारों तरफ़ उत्पन्न हुए घेरे—परिधि—से छूटे हुए सूर्य्य की शोभा होती है। उसने अपने बल और पौरुष का उपयोग भय-भीत लोगों का भय दूर करने ही के लिए किया, किसी को सताने के लिए नहीं। इसी तरह अपने शास्त्रज्ञान और पाण्डित्य का उपयोग उसने विद्वानों का आदर-सत्कार करने हीं—उनके सामने नम्रता दिखाने ही—के लिए किया, अभिमानी बन कर उनकी अवज्ञा करने के लिए नहीं। इतना ही नहीं, किन्तु इस महाप्रभुताशाली सम्राट ने अपना सारा धन भी परोपकार ही में ख़र्च किया। और कहाँ तक कहा जाय, उसने अपने अन्य गुणों से भी दूसरों ही को लाभ पहुँचाया। परोपकार ही को उसने सब कुछ समझा, स्वार्थ को कुछ नहीं।
कुछ दिनों तक सुपुत्र-प्राप्ति के सुख का अनुभव कर के और प्रजा को सब प्रकार प्रसन्न कर के, एक बार वह अपनी रानी इन्दुमती के साथ, अपने नगर के फूल-बाग़ में,—इन्द्राणी को साथ लिये हुए, नन्दनवन में, इन्द्र की तरह—विहार करने के लिए गया। उस समय, आकाश में, नारद मुनि उसी मार्ग से जा रहे थे जिस मार्ग से कि सूर्य्य आता जाता है। दक्षिणी समुद्र के तट पर गोकर्ण नामक एक स्थान है। वहाँ देवाधिदेव शङ्कर का निवास है—उनका वहाँ पर एक मन्दिर है। वीणा बजा कर उन्हीं को अपना गाना सुनाने के लिए देवर्षि चले जाते थे।
इतने में ज़ोर से हवा चली और उनकी वीणा के सिरे की खूँटियों पर लटकी हुई दिव्य फूलों की माला अपने स्थान से भ्रष्ट हो गई। उसकी अलौकिक सुगन्धि ने वायु के हृदय में मत्सर सा उत्पन्न कर दिया। अतएव वायु ने उस माला को गिरा दिया। सुगन्धि के लोभी कितने ही भौँरे उस माला पर मँडरा रहे थे। माला के गिरते ही वे भी उसके साथ वीणा के ऊपर से उड़े। उस समय ऐसा मालूम हुआ जैसे वायु के इस काम से वीणा ने अपना अपमान समझा हो। अतएव दुखी हो कर वह, भौँरों के बहाने, काजल मिले हुए काले काले आँसू गिरा रही हो।
इस माला में अद्भुत सुगन्धि थी। इसके फूलों में मधु भी अलौकिक ही था। अपनी अपनी ऋतु में फूलने वाली लताओं के फूलों के सौन्दर्य्य,