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आठवाँ सर्ग।

समय, उसने स्वर्ग के इन्द्रिय-भोग्य पदार्थों को भी तुच्छ समझा। उसने सोचा कि स्वर्ग के हों या पृथ्वी के, जितने भाग हैं, सभी विनाशवान् हैं। उनकी इच्छा करना मूर्खता है। अतएव वह उनसे एकदम विरक्त हो गया। बात यह है कि इस वंश के राजाओं की यह रीति ही थी। वृद्ध होने पर, ये लोग, अपने गुण-सम्पन्न पुत्र को राज्य सौंप कर, वृक्षों की छाल पहनने वाले योगियों का अनुकरण करते थे—विषयोपभोगों का परित्याग करके, संयमी बन, वन में, ये तपस्या करने चले जाते थे। रघु ने भी, इसीसे, उस रीति का अनुसरण करना चाहा। वह वन जाने के लिए तैयार हो गया। यह देख कर अज को बड़ा दुःख हुआ। सरपेंच से सुशोभित सिर को पिता के पैरों पर रख कर उसने कहा:—"तात! ऐसा न कीजिए। मुझे न छोड़िए। मैं निराश्रित हो जाऊँगा"। पुत्र को इस तरह कहते और रोते बिलखते देख, पुत्रवत्सल रघु ने अज की बात मान ली। वह वन को तो न गया, परन्तु, सर्प जिस तरह छोड़ी हुई केंचुल को फिर नहीं ग्रहण करता उसी तरह, उसने भी परित्याग की हुई लक्ष्मी को फिर नहीं लिया। छोड़ दिया सो छोड़ दिया। वह संन्यासी हो गया और नगर के बाहर, एक कुटी में रहने लगा। वहाँ उसने अपनी सारी इन्द्रियों को जीत लिया। उस समय उसकी पुत्रभोग्या राज्य-लक्ष्मी ने उसके साथ पुत्रबधू की तरह व्यवहार किया। लक्ष्मी का पूर्व-सम्बन्ध रघु से छूट गया; उसका उपभोग अब उसका पुत्र करने लगा। तथापि, भले घर की पुत्रवधू जिस तरह अपने ससुर की सेवा, जी लगा कर, करती है उसी तरह लक्ष्मी भी जितेन्द्रिय रघु की सेवा करती रही।

इधर तो रघु, एकान्त में, मोक्ष-प्राप्ति के उपाय में लगा; उधर नया राज्य पाये हुए अज का दिनों दिन अभ्युदय होने लगा। एक की शान्ति का समय आया, दूसरे के उदय का। अतएव, उस समय, इस प्रकार के दो राजाओं को पाकर इक्ष्वाकु का कुल उस प्रातःकालीन आकाश की उपमा को पहुँच गया जिसमें एक तरफ़ तो चन्द्रास्त हो रहा है और दूसरी तरफ़ सूर्य्योदय। रघु का संन्यासियों के, और, अज को राजाओं के चिह्न धारण किये देख सब लोगों को ऐसा मालूम हुआ जैसे मोक्ष और ऐश्वर्य्यरूपी भिन्न भिन्न दो फल देने वाले धर्म्म के दो अंश पृथ्वी पर उतर आये हों। अज की यह इच्छा हुई कि मैं सभी को जीत लूँ—ऐसा एक भी राजा न रह जाय जिसे मैंने न जीता हो। अतएव, इस उद्देश की सिद्धि के लिए उसने तो बड़े बड़े नीति-विशारदों को अपना मन्त्री बनाया और अपना अधिकांश समय उन्हीं के समागम में व्यतीत करने लगा। उधर रघु ने यह चाहा कि मुझे परम पद की प्राप्ति हो—मुझे आत्मज्ञान हो जाय। इससे सत्यवादी महात्माओं और योगियों की सङ्गति करके वह ब्रह्मज्ञान की चर्चा और