इस दशा को प्राप्त होने पर, सार्वभौम राजा रघु के पुत्र, पञ्चशायक के समान सुन्दर, अज को प्रियंवद नामक गन्धर्व से पाये हुए सम्मोहनास्त्र की याद आई। कर्तव्य-पालन में अज बहुत ही दृढ़ था। आलस्य उसे छू तक न गया था। अतएव कर्तव्य-निष्ठा से प्रेरित होकर उसने उस नींद लानेवाले अस्त्र को उन राजाओं पर छोड़ ही दिया। उसके छूटते ही राजाओं की सेना एकदम सो गई। सैनिकों के हाथ जहाँ के तहाँ जकड़ से गये। धनुष की डोरी खींचने में वे सर्वथा असमर्थ हो गये। लोहे की जाली के टोप सिरों से खिसक कर, एक तरफ़, उन लोगों के कन्धों पर आ रहे। सारे रथारोही सैनिक, अपने अपने शरीर ध्वजाओं के बाँसों से टेक कर, मूर्तियों के समान अचल रह गये। उँगली तक किसी से उठाई न गई। शत्रुओं की ऐसी दुर्दशा देख वीर-शिरोमणि अज ने अपने ओठों पर रख कर बड़े ज़ोर से शङ्ख बजाया। उस समय ऐसा मालूम हुआ जैसे, शङ्ख को मुँह से लगाने के बहाने, वह अपने बाहुबल से प्राप्त किये गये मूर्तिमान् यश को ही पी रहा हो।
अज के विजय-सूचक शङ्खनाद को उसके योद्धा पहचान गये। उसे सुनते ही उन्हें मालूम हो गया कि अज की जीत हुई। पहले तो वे तितर बितर होकर भाग रहे थे, पर शङ्खध्वनि सुन कर वे लौट पड़े। लौट कर उन्होंने देखा कि उनके सारे शत्रु निद्रा में मग्न हैं। अकेला अज ही उनके बीच, चैतन्य अवस्था में, फिर रहा है। रात के समय कमलों के बन्द हो जाने पर चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जिस तरह उनके बीच में झिलमिलाता हुआ देख पड़ता है, चेष्टारहित शत्रुओं के समूह में अज को भी उन्होंने उसी तरह चलता फिरता देखा।
वैरियों को अच्छी तरह परास्त हुआ देख, अज ने युद्ध के मैदान से लौटना चाहा। परन्तु युद्ध-स्थल छोड़ने के पहले, रुधिर लगे हुए अपने बाणों की नोकों से उसने उन राजाओं के पताकों पर यह लिख दियाः—"याद रक्खो, अज तुम्हारे साथ निर्दयता का व्यवहार नहीं करना चाहता। दयार्द्र होकर उसने तुम्हारे प्राण नहीं लिये। केवल तुम्हारा यश ही लेकर उसने सन्तोष किया। यश खोकर और प्राण लेकर अब तुम खुशी से अपने अपने घर जा सकते हो"।
यह करके वह संग्राम-भूमि से लौट पड़ा और भयभीत हुई प्रियतमा इन्दुमती के पास आया। उस समय उसके शरीर की शोभा देखने ही योग्य थी। उसके धनुष का एक सिरा तो ज़मीन पर रक्खा था। दूसरे, अर्थात् ऊपर वाले, सिरे पर उसका दाहना हाथ था। लोहे के टोप को सिर से उतार