सातवाँ सर्ग।
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इन्दुमती से अज का विवाह।
स्वयंवर समाप्त हो गया। इन्दुमती ने अपने अनुरूप पति पाया। महादेव के पुत्र, साक्षात् स्कन्ध, के साथ उनकी पत्नी देव-सेना जिस तरह सुशोभित हुई थी उसी तरह वह भी सर्वगुण-सम्पन्न अज के साथ सुशोभित हुई। विदर्भ-नरेश को भी इस सम्बन्ध से बड़ी खुशी हुई। उसने अपनी बहन और बहनोई को साथ लेकर, स्वयंवर के स्थान से अपनी राजधानी के लिए प्रस्थान किया। जो राजा स्वयंवर में आये थे वे भी अपने अपने डेरों को गये। उस समय उन बेचारों की बड़ी बुरी दशा थी। उनका तेज क्षीण हो रहा था। उनके मुँह सूर्य्योदय होने के कुछ पहले, चन्द्रमा आदि ग्रहों के समान फीके पड़ गये थे। उनके चेहरों पर उदासीनता छाई हुई थी। इन्दुमती को न पाने से उनके सारे मनोरथ मिट्टी में मिल गये। उन्होंने अपने रूप को भी व्यर्थ समझा और अपनी वेश-भूषा को भी। यदि उनकी चलती तो वे अवश्य ही स्वयंवर के काम में विघ्न डालते। परन्तु यह उनकी शक्ति के बाहर की बात थी। कारण यह था कि स्वयंवर की विधि आरम्भ होने के पहले ही इन्द्राणी की यथा-शास्त्र पूजा हुई थी। उसके प्रभाव से किसी भी राजा को विघ्न उपस्थित करने का ज़रा भी साहस न हुआ। अज को इन्दुमती का मिलना यद्यपि उन्हें बहुत ही बुरा लगा—मत्सर की आग से यद्यपि वे बेतरह जले—तथापि, वहाँ पर, उस समय, उनसे कुछ भी करते धरते न बना। लाचार वहाँ से उन्हें चुपचाप उठ जाना ही पड़ा।
उधर वह राज-समूह अपने अपने डेरों को गया। इधर अज ने, अपनी बधू के साथ, राजा भोज के महलों का मार्ग लिया। स्वयंवर से नगर तक चौड़ी सड़क थी। उस पर फूल बिछे हुए थे। जगह जगह पर मङ्गलसूचक सामग्रियाँ रक्खी हुई थीं। इन्द्र-धनुष की तरह चमकते हुए रङ्ग-बिरङ्गे तोरण बँधे हुए थे। मार्ग के दोनों तरफ़ सैकड़ों झण्डियाँ गड़ी हुई थीं।