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छठा सर्ग।

लावण्य में, नई उम्र में, और विनय आदि अन्य गुणों में भी यह सब तरह तेरी बराबरी का है। अतएव तू इसी को अपना वर बना। इस अजरूपी सोने का तेरे सदृश स्त्रीरूपी रत्न से यदि संयोग हो जाय तो क्या ही अच्छा हो। मणि-काञ्चन का संयोग जैसे अभिनन्दनीय होता है वैसे ही तुम दोनों का संयोग भी बहुत ही अभिनन्दनीय होगा।

सुनन्दा का ऐसा मनोहारी भाषण सुन कर, राजकुमारी इन्दुमती ने अपने सोच-भाव को कुछ कम करके, अजकुमार को प्रसन्नता-पूर्ण दृष्टि से अच्छी तरह देखा। देखा क्या मानो उसने दृष्टिरूपिणी वरमाला अर्पण करके अज के साथ विवाह करना स्वीकार कर लिया। शालीनता और लज्जा के कारण यद्यपि, उस समय, वह मुँह से यह न कह सकी कि मैंने इसे अपनी प्रीति का पात्र बना लिया, तथापि उस कुटिल-केशी का अज-सम्बन्धी प्रेम उसके शरीर को वेध कर, रोमाञ्च के बहाने, बाहर निकलही आया। उसे वह किसी तरह न छिपा सकी। अज को देखते ही, प्रेमाधिक्य के कारण, उसके शरीर के रोंगटे खड़े हो गये।

अपनी सखी इन्दुमती की यह दशा देख कर, हाथ में बेत धारण करने वाली सुनन्दा को दिल्लगी सूझी। वह कहने लगी—"आर्य्ये! खड़ी क्या कर रही हो? इसे छोड़ो। चलो और किसी राजा के पास चलें"। यह सुन कर इन्दुमती ने रोषभरी तिरछी निगाह से सुनन्दा की तरफ़ देखा।

इसके अनन्तर मनोहर जंघाओं वाली इन्दुमती ने हलदी, कुमकुम आदि मङ्गल-सूचक वस्तुओं से रँगी हुई माला, सुनन्दा के दोनों हाथों से, अज के कण्ठ में, आदरपूर्वक, यथा-स्थान, पहनवा दी। उसने वह माला क्या पहनाई, उसके बहाने मानो उसने अज को अपना मूर्तिमान् अनुराग ही अर्पण कर दिया। फूलों की उस मङ्गलमयी माला को अपनी चौड़ी छाती पर लटकती हुई देख, चतुर-चूड़ामणि अज ने कहा—'यह माला नहीं, किन्तु विदर्भ-राज भोज की छोटी बहन इन्दुमती ने अपना बाहुरूपी पाश ही मेरे कण्ठ के चारों तरफ़ डाला है। इन्दुमती के बाहु-स्पर्श से जो सुख मुझे मिलता वही इस माला से मिल रहा है'।

अज-कुमार के गले में इन्दुमती की पहनाई हुई वर-माला को देख कर, स्वयंवर में जितने पुरवासी उपस्थित थे उनके आनन्द का ठिकाना न रहा। अज और इन्दुमती में गुणों की समानता देख कर वे बहुत ही प्रसन्न हुए। अतएव एक-स्वर से ये सब बाल उठे:—" बादलों के घेरे से छटे हुए चन्द्रमा से चाँदनी का संयोग हुआ है; अथवा अपने अनुरूप महासागर से भागीरथी गङ्गा जा मिली है।" ये वाक्य औरों को तो बड़े ही मीठे मालूम