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पाँचवाँ सर्ग।

मनोरथ यदि पृथ्वी पूर्ण करे तो कोई आश्चर्य्य की बात नहीं। परन्तु, महाराज, आपकी महिमा इस से कहीं बढ़ कर है। वह अतर्क्य है। उसे देख कर अवश्य ही आश्चर्य्य होता है। क्योंकि, आप ने पृथ्वी ही को नहीं, आसमान को भी दुह कर अपना मनोरथ सफल कर लिया। अब मैं आपको क्या आशीर्वाद दूँ? कोई चीज़ ऐसी नहीं जो आपको प्राप्त न हो। आपकी जितनी इच्छायें थीं सब परिपूर्ण हो चुकी हैं। उन्हीं में से फिर किसी इच्छा को परिपूर्ण करने के लिए आशीर्वाद देना पुनरुक्ति मात्र होगी। ऐसे चर्बित चर्बण से क्या लाभ? इस कारण, मेरा यह आशीर्वाद है कि जिस तरह आपके पिता दिलीप ने आपके सदृश प्रशंसनीय पुत्र पाया, उसी तरह, आप भी, अपने सारे गुणों से सम्पन्न, अपने ही सदृश एक पुत्र-रत्न पावें"!

राजा को यह आशीर्वाद देकर कौत्स ऋषि अपने गुरु वरतन्तु के आश्रम को लौट गया। उधर गुरु को दक्षिणा देकर उसके ऋण से उसने उद्धार पाया, इधर उसका आशीर्वाद भी शीघ्रही फलीभूत हुआ। जिस तरह प्राणिमात्र को सूर्य्य से प्रकाश की प्राप्ति होती है उसी तरह कौत्स के आशीर्वाद से राजा रघु को पुत्र की प्राप्ति हुई। अभिजित् नाम के मुहूर्त्त में उसकी रानी ने स्वामिकार्त्तिक के समान पराक्रमी पुत्र उत्पन्न किया। यह मुहूर्त्त ब्राह्ममुहूर्त्त कहलाता है, क्योंकि इसके देवता ब्रह्मा हैं। इसी से रघु ने अपने पुत्र का नाम भी तदनुरूप ही रखना चाहा। ब्रह्मा का एक नाम 'अज' भी है। रघु को यही नाम सब से अधिक पसन्द आया। इस कारण उसने पुत्र का भी यही नाम रक्खा। जिस तरह किसी दीपक से जलाया गया दूसरा दीपक ठीक पहले के सदृश होता है, उसी तरह वह बालक भी अपने पिता रघु के ही सदृश हुआ। क्या रूप में, क्या तेज में, क्या बल में, क्या वीर्य्य में, क्या स्वाभाविक उदारता और उन्नति में—सभी बातों में वह अपने पिता के तुल्य हुआ, भिन्नता उसमें ज़रा भी न हुई।

यथासमय अज-कुमार ने विद्योपार्ज्जन आरम्भ किया। कितने ही विद्वान् अध्यापक उसे पढ़ाने के लिए नियत किये गये। धीरे धीरे उसने उनसे सारी विद्यायें विधिपूर्वक पढ़ डालीं।

तब तक वह तरुण भी हो गया। अतएव उसकी शरीर-कान्ति और भी बढ़ गई—उसका रूप-लावण्य पहले से भी अधिक हो गया। इस कारण राज्यलक्ष्मी उसे बहुत चाहने लगी। रघु को पाने के लिए वह मनही मन उत्कण्ठित हो उठी। परन्तु जिस तरह भले घर की उपवर कन्या, किसी योग्य वर को पसन्द कर लेने पर भी, उसके साथ विवाह करने के लिए, पिता की आज्ञा की