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पाँचवाँ सर्ग।

पास नहीं। फिर, महर्षि वरतन्तु से प्राप्त की गई चौदह विद्याओं का बदला भी मुझे थोड़ा नहीं देना! अतएव इतनी बड़ी रक़म आप से माँगने के लिए मेरा मन गवाही नहीं देता। मैं, इस विषय में, आपसे आग्रह नहीं करना चाहता"।

जिसके शरीर की कान्ति चन्द्रमा की कान्ति के समान आनन्द-दायक थी, जिसकी इन्द्रियों का व्यापार पापाचरण से पराङ्मुख था, जिसने कभी कोई पापकर्म नहीं किया था—ऐसे सार्वभौम राजा रघु ने, वेदार्थ जानने वाले विद्वानों में श्रेष्ठ, कौत्स, ऋषि की पूर्वोक्त विज्ञप्ति सुन कर, यह उत्तर दिया:—

"आपका कहना ठीक है, परन्तु मैं आपको विफल-मनोरथ होकर लौट नहीं जाने दे सकता। कोई सुनेगा तो क्या कहेगा! सारे शास्त्रों का जानने वाला कौत्स ऋषि, अपने गुरु को दक्षिणा देने के लिए, याचक बन कर आया; परन्तु रघु उसका मनोरथ सिद्ध न कर सका। इससे लाचार होकर उसे अन्य दाता के पास जाना पड़ा। इस तरह के लोकापवाद से मैं बहुत डरता हूँ। मैं, अपने ऊपर, ऐसे अपवाद के लगाये जाने का मौक़ा नहीं देना चाहता। इस कारण, आप मेरी पवित्र और सुन्दर अग्निहोत्र-शाला में—जहाँ आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिण, ये तीनों अग्नि निवास करते हैं—दो तीन दिन, मूर्त्तिमान् चौथे अग्नि की तरह, ठहरने की कृपा करें। मान्यवर, तब तक मैं आपका मनोरथ सिद्ध करने के लिए, यथाशक्ति, उपाय करना चाहता हूँ"।

यह सुन कर वह ब्राह्मण श्रेष्ठ बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा:—"बहुत अच्छा। महाराज, आप सत्यप्रतिज्ञ हैं। आपकी आज्ञा मुझे सर्वथा मान्य है"। यह कह कर वह ऋषि राजा रघु की यज्ञ-शाला में जा ठहरा।

इधर राजा रघु ने सोचा कि पृथ्वी-मण्डल में जितना द्रव्य था वह तो मैं, दिग्विजय के समय, प्रायः सभी ले चुका। थोड़ा बहुत जो रह गया है उसे भी ले लेना उचित नहीं। अतएव, कौत्स के निमित्त द्रव्य प्राप्त करने के लिए कुबेर पर चढ़ाई करनी चाहिए। इस प्रकार मन में सङ्कल्प करके उसने धनाधिप से ही चौदह करोड़ रुपया वसूल करने का निश्चय किया। कुबेर तक पहुँचना और उसे युद्ध में परास्त करना रघु के लिए कोई बड़ी बात न थी। महामुनि वशिष्ठ ने पवित्र-मन्त्रोच्चारण-पूर्वक रघु पर जो जल छिड़का था, उसके प्रभाव से राजा रघु का सामर्थ्य बहुत ही बढ़