उसके भी साहस ने जवाब दिया। अतएव जिन मत्त हाथियों से उसने अन्यान्य राजाओं को हराया था उन्हीं को रघु की भेंट करके उसने अपनी जान बचाई। वह रघु की शरण गया और उसके चरणों की कान्तिरूपिणी छाया को, उसके सुवर्णमय सिंहासन की अधिष्ठात्री देवी समझ कर, रत्नरूपी फूलों से उसकी पूजा की—रघु को रत्नों की ढेरी नज़र करके उसकी अधीनता स्वीकार की।
इस प्रकार दिग्विजय कर चुकने पर, अपने रथों की उड़ाई हुई धूल को छत्ररहित किये गये राजाओं के मुकटों पर डालता हुआ, वह विजयी राजा लौट पड़ा। राजधानी में सकुशल पहुँच कर उसने उस विश्वजित् नामक यज्ञ का अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया जिसकी दक्षिणा में यजमान को अपना सर्वस्व दे डालना पड़ता है। उसे ऐसाही करना मुनासिब भी था। क्योंकि, समुद्र से जल का आकर्षण करके जिस तरह मेघ उसे फिर पृथ्वी पर बरसा देते हैं, उसी तरह सत्पुरुष भी सम्पत्ति का सञ्चय कर के उसे फिर सत्पात्रों को दे डालते हैं। दान करने ही के लिए वे धन इकट्ठा करते हैं; रख छोड़ने के लिए नहीं।
ककुत्स्थ के वंशज राजा रघु ने जिन राजाओं को युद्ध में परास्त किया था उन्हें भी वह अपने साथ अपनी राजधानी को लेता आया था; क्योंकि उसे विश्वजित्-यज्ञ करना था और यज्ञ के समय उनका उपस्थित रहना आवश्यक था। यज्ञ के समाप्त हो जाने पर उनको रोक रखना उसने व्यर्थ समझा। उधर वियोग के कारण उनकी रानियाँ भी उनके लौटने की राह उत्कण्ठापूर्वक देख रही थीं। अतएव अपने मन्त्रियों के साथ मित्रवत् व्यवहार करने और सब का सुख-दुःख जानने वाले रघु ने, उन सारे राजाओं का अच्छा सत्कार कर के, उनके पराजय सम्बन्धी दुःख को बहुत कुछ दूर कर दिया। तदनन्तर बड़े बड़े पुरस्कार देकर रघु ने उन्हें अपने अपने घर लौट जाने की आज्ञा दी। तब ध्वजा, वज्र और छत्र की रेखाओं से चिह्नित, और बड़े भाग्य से प्राप्त होने योग्य, चक्रवर्ती रघु के चरणों पर अपने अपने सिर रख कर उन राजाओं ने वहाँ से प्रस्थान किया। उस समय उनके मुकुटों पर गुँथे हुए फूलों की मालाओं के मकरन्द-कणों ने गिर कर रघु की अँगुलियों को गौर-वर्ण कर दिया।