अधिक पराक्रमी समझा। वहाँ पर राजा रघु के मत्त हाथियों ने अपने दाँतों के प्रहार से त्रिकूट पर्वत के शिखरों को तोड़ फोड़ कर रघु के प्रबल पराक्रम के सूचक और चिरकालस्थायी चिह्न से कर दिये। इससे रघु ने विजय-सूचक स्तम्भ स्थापित न करके उस तोड़े फोड़े पर्वत ही को अपना जय स्तम्भ समझा, और, और स्थानों में जैसी लाटें उसने गाड़ी थीं वैसी ही लाटें वहाँ गाड़ना उसने अनावश्यक समझा।
इसके अनन्तर रघु ने फ़ारिस पर चढ़ाई करने का निश्चय किया। इन्द्रियरूपी वैरियों को जीतने के लिए तत्त्व-ज्ञानरूपी मार्ग से जानेवाले योगी की तरह उसने फ़ारिस के राजाओं को जीतने के लिए धल की राह से प्रयाण किया।
प्रातःकालीन कोमल धूप कमलों को बहुत ही सुखदायक होती है। परन्तु कुसमय में ही उठने वाले मेघों को वह जैसे सहन नहीं होती, वैसे ही यवन-स्त्रियों के मुख-कमलों पर मद्यपान से उत्पन्न हुई लाली राजा रघु को सहन न हुई। इस कारण युद्ध में उनके पतियों का पराभव करके उस लालिमा को उसने नष्ट कर दिया। यवन-राजाओं के पास सवारों की सेना बहुत अधिक थी। इससे उनका बल बेहद बढ़ा हुआ था। परन्तु रघु इससे ज़रा भी सशङ्क न हुआ। उसने उन लोगों के साथ ऐसा घनघोर युद्ध किया कि धरती और आसमान धूल से व्याप्त हो गये। हाथ मारा न सूझने लगा। उस समय धनुष की डोरियों की टङ्कार सुन कर ही सैनिक लोग अपने अपने पक्ष के योद्धाओं को पहचानने में समर्थ हुए। यदि प्रत्यञ्चाओं का शब्द न सुनाई पड़ता तो शत्र-मित्र का ज्ञान होना असम्भव हो जाता। उस युद्ध में राजा रघु ने अपने भल्लनामक बाणों से यवनों के बड़े बड़े डढ़ियल सिरों को काट कर—शहद की मक्खियों से भरे हुए छत्तों की तरह—ज़मीन पर बिछा दिया। जो यवन मारे जाने से बचे वे अपनी अपनी पगड़ियाँ उतार कर रघु की शरण आये। यह उन्होंने उचित ही किया। महात्माओं का कोप उनकी शरण आने और उनके सामने सिर झुकाने ही से जाता है। शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके राजा रघु के योद्धाओं ने, अङ्गूर की बेलों के मण्डपों में, ज़मीन पर अच्छे अच्छे मृग-चर्म बिछा कर, आनन्द से द्राक्षासव का पान किया। इससे उनकी युद्ध-सम्बन्धिनी सारी थकावट जाती रही।
पश्चिमी देशों के यवन-राजाओं का अच्छी तरह पराभव करके रघु की सेना ने उन देशों से भी डेरे उठा दिये। दक्षिणायन समाप्त होते ही जिस तरह भगवान सूर्य्य-नारायण अपनी प्रखर किरणों से उत्तर दिशा के जल
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