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रघुवंश।


जीव समुद्र के भीतर घुस जाते हैं उसी तरह वह-वर्णमाला याद करके उसके द्वारा शब्दशास्त्र में घुस गया। कुछ समय और बीत जाने पर उसका विधिपूर्वक यज्ञोपवीत हुआ। तब उस पिता के प्यारे को पढ़ने के लिए बड़े बड़े विद्वान अध्यापक नियत हुए। बड़े यत्न और बड़े परिश्रम से वे उसे पढ़ाने लगे। उनका वह यत्न और वह परिश्रम सफल भी हुआ। और, क्यों न सफल हो ? सुपात्र को दी हुई शिक्षा कहीं निष्फल जाती है ? दिशाओं का स्वामी सूर्य जिस तरह पवन के समान वेगगामी अपने घोड़ों की सहायता से यथाक्रम चारों दिशाओं को पार कर जाता है, उसी तरह, वह कुशाग्रबुद्धि रघु, अपनी बुद्धि के शुश्रषा, श्रवण, ग्रहण और धारण आदि सारे गुणों के प्रभाव से, महासागर के समान विस्तृत चारों विद्याओं को क्रम क्रम से पार कर गया। धीरे धीरे वह आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्ड-नीति, इन चारों विद्याओं में व्युत्पन्न हो गया! यज्ञ में मैं मारे गये काले हिरन का चर्म पहन कर उसने मन्त्र-सहित आग्नेय आदि अस्त्रविद्याये भी सीख ली। परन्तु इस अस्त्रशिक्षा के लिए उसे किसी और शिक्षक का आश्रय नहीं लेना पड़ा। इसे उसने अपने पिता ही से प्राप्त किया। क्योंकि उसका पिता, दिलीप, केवल अद्वितीय पृथ्वीपति ही न था; पृथ्वी की पीठ पर वह अद्वितीय धनुषधारी भी था।

बड़े बैल की अवस्था को प्राप्त होनेवाले बछड़े अथवा बड़े गज की स्थिति को पहुँचनेवाले गज-शावक की तरह रघु ने, धीरे धीरे, बाल-अवस्था से निकल कर युवावस्था में प्रवेश किया। उस समय उसके शरीर में गम्भीरता आ जाने के कारण वह बहुत ही सुन्दर देख पड़ने लगा। उसके युवा होने पर उसके पिता ने गोदान-नामक संस्कार कराया। फिर उसका विवाह किया। अन्धकार का नाश करनेवाले चन्द्रमा को पाकर जिस तरह दक्ष प्रजापति की बेटियाँ शोभित हुई थी, उसी तरह रघु के समान सद्गुण सम्पन्न पति पाकर राजाओं की बेटियाँ भी सुशोभित हुई।

पूर्ण युवा होने पर रघु की भुजायें गाड़ी के जुए के सदृश लम्बी हो गई। शरीर खूब बलवान हो गया। छाती किवाड़ के समान चौड़ी हो गई। गर्दन मोटी हो गई। यद्यपि शक्ति और शरीर की वृद्धि में वह अपने पिता, दिलीप, से भी बढ़ गया, तथापि नम्रता के कारण वह फिर भी