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दूसरा सर्ग।

पत्नी के साथ,रथ पर आरोहण किया। उसका रथ बहुत ही अच्छा था। चलते समय उसके पहियों की ध्वनि कानों को बड़ी ही मनो- हर मालूम होती थी। बुरे मार्ग में भी वह बिना रुकावट के चल सकता था । अतएव,पूर्ण हुए मनोरथ के समान उस सुखदायक रथ पर मार्ग-क्रमण करता हुआ राजा अपने नगर के निकट आ पहुँचा ।

सन्तान की प्राप्ति के निमित्त व्रताचरण करने से राजा दिलीप बहुत ही दुबला हो रहा था। नगर से दूर आश्रम में रहने के कारण प्रजाजनों ने उसे बहुत दिनों से देखा भी न था। उसका पुनदर्शन करने के लिए वे बहुत उत्कण्ठित हो रहे थे । अतएव,राजधानी में पहुँचने पर,शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के चन्द्रमा के समान उस कृशाङ्ग राजा को उसकी प्रजा ने अतृप्त नेत्रों से पीसा लिया। उत्सुकता के कारण घंटों उसकी तरफ़ देखते रहने पर भी लोगों को तृप्ति न हुई।

राजा के लौटने के समाचार पा कर पुरवासियों ने पहले ही से नगर को ध्वजा-पताका आदि से सजा रक्खा था । इन्द्र के समान ऐश्वर्यशाली दिलीप ने,उस सजी हुई अपनी राजधानी में,नगरनिवा- सियों के मुँह से अपनी स्तुति सुनते सुनते प्रवेश किया और भूमि के भार को शेष के समान बलवान् अपनी भुजाओं पर फिर धारण कर लिया। फिर वह पहले की तरह अपना राज-काज करने लगा।

इधर राजा की सन्तान-सम्बन्धिनी कामना ने भी फलवती होने का उपक्रम किया। अत्रि मुनि की आँखों से निकले हुए चन्द्रमा को जिस तरह नभस्थली ने,और अग्नि के फेंके हुए महादेव के तेज, अर्थात् कार्तिकेय को,जिस तरह गङ्गा ने धारण किया था उसी तरह आठों दिक्पालों के गुरुतर अंशों से परिपूर्ण गर्भ को,सुदक्षि- णा ने,दिलीप के वंश का ऐश्वर्य बढ़ाने के लिए,धारण किया । नन्दिनी का वरदानरूपी पादप शीघ्रही कुसुमित हो उठा।