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रघुवंश।

अपना अक्षत शरीर लिये हुए मुँह दिखाने का साहस नहीं कर सकता। पहले वह अपने को नष्ट कर देगा तब अपनी रक्षणीय वस्तु को नष्ट होने देगा । जीते जी वह उसकी अवश्य ही रक्षा करेगा। यही समझ कर तू भी अपने स्वामी के पाले हुए पेड़ की रक्षा के लिए इतना प्रयत्न करता है। इस दशा में तू मेरी प्रार्थना को अनुचित नहीं कह सकता। इस पर भी यदि तू मुझे मारे जाने योग्य न समझता हो तो मेरे मनुष्य-शरीर की रक्षा की परवा न करके मेरे यशःशरीर की रक्षा कर । रक्त,मांस और हड्डी के शरीर की अपेक्षा मैं यशोरूपी शरीर को अधिक आदर की चीज़ सम- झता हूँ। पंचभूतात्मक साधारण शरीर तो एक न एक दिन अवश्य ही नष्ट हो जाता है; परन्तु यश चिरकाल तक बना रहता है। इसीसे मैं यश को बहुत कुछ समझता हूँ, शरीर को कुछ नहीं। हम दोनों में अब परस्पर सुहृत्संबंध सा हो गया है; अपरिचित-भाव अब नहीं रहा । इस कारण भी तुझे मेरी प्रार्थना मान लेनी चाहिए। सम्बन्ध का कारण पारस्परिक सम्भाषण ही होता है। बातचीत होने ही से सम्बन्ध स्थिर होता है। जब तक पहले बात- चीत नहीं हो लेती तब तक किसी का किसी के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं हो सकता । वह इस वन में हम दोनों के मिलने और आपस में बातचीत करने से हो गया। हम दोनों सम्बन्ध-सूत्र से बंध चुके। अतएव,हे शिवजी के सेवक ! मुझ सम्बन्धी की प्रणयपूर्ण प्रार्थना का अनादर करना अब तुझे उचित नहीं।"

दिलीप की दलीलें सुन कर सिंह ने अपना अाग्रह छोड़ दिया । उसने कहाः-"बहुत अच्छा; तेरा कहना मुझे मान्य है।" यह वाक्य उसके मुंह से निकलते ही, निषङ्ग के भीतर बाणों की पूंछ पर चिपका हुआ राजा का हाथ छूट गया। हाथ को गति प्राप्त होते ही राजा ने अपने शस्त्रास्त्र खोल कर ज़मीन पर डाल दिये और मास के टुकड़े के समान अपना शरीर सिंह को समर्पण करने के लिए वह बैठ गया । इसके उपरान्त,अपने ऊपर होने वाले सिंह के भयङ्कर उड्डान की राह,सिर नीचा किये हुए,वह देख ही रहा था कि उस पर विद्याधरों ने फूल बरसाये । सिंह का आक्रमण होने के बदले उस प्रजापालक राजा पर आकाश से कोमल कुसुमों की वृष्टि हुई !