यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५
दूसरा सर्ग।

स्पद है । यह सच है। तथापि,शंकर का सन्निधिवर्ती सेवक होने के कारण प्राणियों के मन की बात जानने की तू शक्ति रखता है। अतएव जो कुछ मेरे मन में है-जो कुछ तुझसे मैं कहना चाहता हूँ-वह भी तू जानता ही होगा। इस दशा में मैं स्वयं ही अपने मुँह से अपना वक्तव्य क्यों न तेरे सामने निवेदन कर दूं? अच्छा सुन:-

"स्थावर और जङ्गम- चल और अचल-जो कुछ इस संसार में है उस सब की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कर्ता परमेश्वर शङ्कर मेरे अवश्य ही पूज्य हैं। उनकी आज्ञा मुझे शिरसा धार्य है । साथही इसके यज्ञ की प्रधान साधन, गुरुवर वशिष्ठ की इस गाय की रक्षा करना भी मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। उसका, इस तरह,अपनी आँखों के सामने मारा जाना मैं कदापि नहीं देख सकता । अतएव, शङ्कर की प्रेरणा ही से यह गाय तेरे पब्जे में क्यों न आ फँसी हो,मैं इसे छोड़ कर आश्रम को नहीं लौट सकता । इस समय तू एक बात कर । तेरे लिए शङ्कर की यही आज्ञा है न कि जो कोई प्राणी दैवयोग से यहाँ आ जाय उसे ही मार कर तू अपनी क्षुधा-निवृत्ति कर ? अच्छा, मैं भी तो यहाँ, इस समय, नन्दिनी के साथही आकर उपस्थित हुआ हूँ। अतएव, मुझ पर कृपा करके, तू मेरे ही शरीर से अपनी भूख शान्त कर ले । नन्दिनी को छोड़ दे। इसे मारने से इसका बछड़ा भी जीता न रहेगा। कब सायङ्काल होगा और कब मेरी माँ घर आवेगी, यह सोचता हुआ वह बड़ी ही उत्कण्ठा से इसकी राह देख रहा होगा। इस कारण इसे मारना तुझे मुनासिब नहीं।"

यह सुन कर सारे प्राणियों के पालने वाले शङ्कर के सेवक सिंह ने,कुछ मुसकरा कर, उस ऐश्वर्यशाली राजा की बातों का उत्तर देना प्रारम्भ किया । ऐसा करते समय, उसका मुँह खुल जाने के कारण,उसके बड़े बड़े सफ़ेद दांतों की प्रभा ने उस गिरि-गुहा के अन्धकार के टुकड़े टुकड़े कर दिये-उसके दाँतों की चमक से वह गुफा प्रकाशित हो उठी। वह बोला-

"तू एकच्छत्र राजा है-तेरे रहते किसी और राजा को सिर पर छत्र धारण करने का अधिकार नहीं; क्योंकि इस सारे भारत का अकेला तू ही