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रघुवंश।

दिलीप की दृष्टि को, रस्सी से खींची गई वस्तु की तरह, अपनी ओर खींच लिया। गाय की गहरी आर्तवाणी सुनने पर उस धनुर्धारी राजा की दृष्टि वहाँ से हटी। उसने देखा कि गेरू के पहाड़ की शिखर-भूमि के ऊपर फूले हुए लोध्रनामक वृक्ष की तरह उस लाल रङ्ग की गाय के ऊपर एक शेर उसे पकड़े हुए बैठा है। अपने बाहुबल से शत्रुओं का क्षय करने वाले और शरणागतों की रक्षा में ज़रा भी देर न लगानेवाले राजा से सिंह का किया हुआ यह अपमान न सहा गया। वह क्रोध से जल उठा। अतएव वध किये जाने के पात्र उस सिंह को जान से मार डालने के लिए, सिंह ही के समान चालवाले उस राजा ने, बाण निकालने के इरादे से, अपना दाहना हाथ तूणीर में डाला। ऐसा करने से सिंह पर प्रहार करने की इच्छा रखनेवाले दिलीप के हाथ के नखों की प्रभा, कङ्कनामक पक्षी के पर लगे हुए बाणों की पूँछों पर, पड़ी। इससे वे सब पूछे बड़ी ही सुन्दर मालूम होने लगी। उस समय बड़े आश्चर्य की बात यह हुई कि राजा की उँगलियाँ बाणों की पूंछों ही में चिपक गई। चित्र में लिखे हुए धनुर्धारी पुरुष की बाण-विमोचन क्रिया के समान उसका वह उद्योग निष्फल हो गया। हाथ के इस तरह रुक जाने से राजा के कोप की सीमा न रही। क्योंकि महा पराक्रमी होने पर भी सामने ही बैठे हुए अपराधी सिंह को दण्ड देने में वह असमर्थ हो गया। अतएव, मन्त्रों और ओषधियों से कीले हुए विष-धर भुजङ्ग की तरह वह तेजस्वी राजा अपनी ही कोपाग्नि से भीतर हो भीतर जलने लगा।

राजा दिलीप कुछ ऐसा वैसा न था। महात्मा भी उसका मान करते थे। वैवस्वत मनु के वंश का वह शिरोमणि था। उस समय के सारे राजाओं में वह सिंह के समान बलवान था। इस कारण, अपना हाथ रुक जाते देख उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा को इस तरह आश्चर्य-चकित देख कर, नन्दिनी पर आक्रमण करने वाले सिंह ने, मनुष्य की वाणी में, नीचे लिखे अनुसार बाते कह कर, उसके आश्चर्य को और भी अधिक कर दिया। वह बोला:-

"हे राजा! बस हो चुका। और अधिक परिश्रम करने की आवश्य- कता नहीं। चाहे जिस शस्त्र का प्रयोग तू मेरे ऊपर कर, वह व्यर्थ हुए