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रघुवंश।


उस राजा के साथ जाती हुई नन्दिनी ने, उस समय, ऐसी शोभा पाई जैसी कि धर्म-कार्य करते समय शास्त्र-सम्मत विधि के साथ श्रद्धा, अर्थात स्तिक्य-बुद्धि, शोभा पाती है। उस समय, सायङ्काल, वन का दृश्य बहुत ही जी लुभानेवाला था। शूकरों के यूथ के यूथ छोटे छोटे जलाशयों से निकल रहे थे; मोर पक्षी अपने अपने बसेरे के वृक्षों की तरफ़ उड़ते हुए जा रहे थे; कोमल घास उगी हुई भूमि पर जहाँ तहाँ हिरन बैठे हुए थे। ऐसे मनोहर दृश्योंवाले श्यामवर्ण वन की शोभा देखता हुओ राजा, वशिष्ठ के आश्रम के पास पहुँच गया। नन्दिनी पहले ही पहल ब्याई थी। उसका ऐन बहुत बड़ा था। उसका बोझ सँभालने में उसे बहुत प्रयास पड़ता था। उधर राजा का शरीर भी भारी था। उसकी भी गुरुता कम न थी। अतएव अपने अपने शरीर के भारीपन के कारण दोनों को धीरे धीरे चलना पड़ता था। उनकी उस मन्द और सुन्दर चाल से तपोवन के आने जाने के मार्ग की रमणीयता और भी बढ़ गई।

महामुनि वशिष्ठ की धेनु के पीछे वन से लौटते हुए दिलीप को, उसकी रानी सुदक्षिणा ने, बड़े ही चाव से देखा। सारा दिन न देख पाने के कारण उसके नेत्रों को उपास सा पड़ रहा था। अतएव उसने अपने तृषित नेत्रों से राजा को पी सा लिया। बिना पलके बन्द किये, बड़ी देर तक टकटकी लगाये, वह पति को देखती रही। अपनी पर्णशाला से कुछ दूर आगे बढ़ कर वह नन्दिनी से मिली। वहाँ से वह उसे आश्रम को ले चली। वह आगे हुई, नन्दिनी उसके पीछे, और राजा नन्दिनी के पीछे। उस समय राजा और रानी के बीच नन्दिनी, दिन और रात के बीच सन्ध्या के समान, शोभायमान हुई।

गाय के घर आ जाने पर, पूजा-सामग्री से परिपूर्ण पात्र हाथ में लेकर राजपत्नी सुदक्षिणा ने पहले तो उसकी प्रदक्षिणा की। फिर अपनी मनोकामना की सिद्धि के द्वार के समान उसने उसके विशाल मस्तक की पूजा गन्धाक्षत आदि से की। उस समय नन्दिनी अपने बछड़े को देखने के लिए बहुत ही उत्कण्ठित हो रही थी। तथापि वह ज़रा देर ठहर गई। निश्चल खड़ी रह कर उसने रानी की पूजा का स्वीकार किया। यह देख कर वे दोनों, राजा-रानी, बहुत ही प्रसन्न हुए-उन्हें परमानन्द हुआ।