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दूसरा सर्ग।

में प्रवेश करते समय पुरवासिनी कन्यायें जिस तरह राजा पर खीलों की वृष्टि करती हैं उसी तरह,उस अग्नि समान तेजस्वी और परम पूजनीय दिलीप को अपने आस पास चारों तरफ़ फिरते देख,नवीन लताओं ने पवन की प्रेरणा से उस पर फूल बरसाये । यद्यपि राजा के हाथ में धनुर्वाण था,तथापि उसकी मुखचर्या से यह साफ़ मालूम हो रहा था कि उसका हृदय बड़ा ही दयालु है। इस कारण हरिण-नारियाँ उससे ज़रा भी नहीं डरीं। उन्होंने उसके दयालुताद- र्शक शरीर का पास से अवलोकन करके अपने नेत्रों की विशालता को अच्छी तरह सफल किया-उसे खूब टकटकी लगाकर उन्होंने देखा। वृक्षों,लताओं और मृग-महिलाओं तक को राजा के शुभागमन के कारण आनन्द मनाते और उसका समुचित पूजोपचार करते देख वन-देवताओं से भी न रहा गया। छेदों में वायु भर जाने के कारण बाँसुरी के समान शब्द करने वाले बाँसों से उन्होंने बड़े ऊँचे स्वर से दिलीप को सुना सुना कर लतागृहों के भीतर उसका यशोगान किया । अब पवन की बारी आई । उसने देखा कि व्रतस्थ होने के कारण राजा छत्ररहित है और तेज़ धूप उसे सता रही है । अतएव पर्वतों पर बहने वाले झरनों के कणों के स्पर्श से शीतल और वृक्षों के हिलते हुए फूलों के सुवास से सुगन्धित होकर उसने भी उस सदाचार-शुद्ध राजा की सेवा की।

उस धेनु-रक्षक राजा का वन में प्रवेश होने पर,बिना वृष्टि के ही सारी दावाग्नि बुझ गई; फलों और फूलों की बेहद वृद्धि हुई; यहाँ तक कि प्रबल प्राणियों ने निर्बलों को सताना तक छोड़ दिया।

अपने भ्रमण से सारी दिशाओं को पवित्र करके, नये निकले हुए कोमल पत्तों के समान लाल रङ्ग वाली सूर्य की प्रभा और वशिष्ठ मुनि की धेनु,दोनों ही,सायङ्काल घर जाने के लिए लौटी-सूर्यास्त के समय नन्दिनी ने आश्रम की ओर प्रस्थान किया।

देवताओं के लिए किये जानेवाले यज्ञ, पितरों के लिए किये जाने वाले श्राद्ध और अतिथियों के लिए दिये जाने वाले दान के समय काम आने वाली उस सुरभि-सुता के पीछे पीछे पृथ्वी का पति दिलीप भी आश्रम को चला। अपने शुद्ध आचरण के कारण श्रेष्ठजनों के द्वारा सम्मान पाये हुए