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दूसरा सर्ग।

नन्दिनी से राजा दिलीप का वर पाना।

प्रात:काल हुआ । नन्दिनी दुही गई । दूध पी चुकने पर उसका बछड़ा अलग बाँध दिया गया। सुदक्षिणा ने चन्दनादि सुगन्धित वस्तुओं से उसकी पूजा की; उसे माला धारण कराया। तदनन्तर प्रजा जनों के स्वामी कीर्तमान् राजा दिलीप ने,वन में ले जाकर चराने के लिए,वशिष्ठ मुनि की उस धेनु को बन्धन से खोल दिया । उसे वह चराने ले चला।

नन्दिनी ने वन का मार्ग लिया। उसके खुरों के स्पर्श से मार्ग की धूलि पवित्र होगई । पतिव्रता स्त्रियों की शिरोभूषण सुदक्षिणा उस धेनु के पीछे पीछे उसी मार्ग से इस तरह जाने लगी जिस तरह कि श्रुति के पीछे पीछे स्मृति जाती है । श्रुति (वेद) में जो बात कही गई है उसी के आश्रय पर स्मृति चलती है-अर्थात् वह वेद-वाक्यों का अनुसरण करती है। सुदक्षिणा ने भी तद्वत् ही नन्दिनी के पीछे पीछे उसके मार्ग का अनुसरण किया । नन्दिनी के कुछ दूर जाने पर उस दयाहृदय राजा ने अपनी रानी को लौटा दिया। रानी के लौट पड़ने पर,परम यशस्वी होने के कारण अत्यन्त मनोज्ञ रूप वाला दिलीप,चारों समुद्रों के समान चार स्तनों वाली धेनुरूपिणी पृथ्वी के सदृश, उस कामधेनु-कन्या नन्दिनी की रखवाली करने लगा । उसके साथ उस समय तक भी दो चार नौकर चाकर थे। अब उनको भी उसने लौट जाने की आज्ञा दे दी । उसने कहा-"मैंने स्वयं ही नन्दिनी की सेवा करने का व्रत धारण किया है। मुझे नौकरों से क्या काम ?” उन्हें इस तरह लौटा कर वह अकेला ही नन्दिनी की रक्षा में तत्पर हुआ। सच पूछिए तो उसे नौकरों और शरीर-